यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 2
ऋषिः - शाकल्य ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - निचृत् गायत्री,स्वराट् पङ्क्ति,
स्वरः - षड्जः, धैवतः
87
अ॒ग्रे॒णीर॑सि स्वावे॒शऽउ॑न्नेतॄ॒णामे॒तस्य॑ वित्ता॒दधि॑ त्वा स्थास्यति दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता मध्वा॑नक्तु सुपिप्प॒लाभ्य॒स्त्वौष॑धीभ्यः। द्यामग्रे॑णास्पृक्ष॒ऽआन्तरि॑क्षं॒ मध्ये॑नाप्राः पृथि॒वीमुप॑रेणादृꣳहीः॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्रे॒णीः। अ॒ग्रे॒नीरित्य॑ग्रे॒ऽनीः। अ॒सि॒। स्वा॒वे॒श इति॑ सुऽआवे॒शः। उ॒न्ने॒तॄ॒णामित्यु॑त्ऽनेतॄ॒णाम्। ए॒तन्य॑। वि॒त्ता॒त्। अधि॑। त्वा॒। स्था॒स्य॒ति॒। दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। मध्वा॑। अ॒न॒क्तु॒। सु॒पि॒प्प॒लाभ्य॒ इति॑ सुऽपिप्प॒लाभ्यः॑। त्वा॒। ओष॑धीभ्यः। द्याम्। अग्रे॑ण। अ॒स्पृ॒क्षः॒। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। मध्ये॑न। अ॒प्राः॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॑परेण। अ॒दृ॒ꣳहीः॒ ॥२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्रेणीरसि स्वावेशऽउन्नेतऋृणामेतस्य वित्तादधि त्वा स्थास्यति देवस्त्वा सविता मध्वनक्तु सुपिप्पलाभ्यस्त्वौषधीभ्यः । द्यामग्रेणास्पृक्ष आन्तरिक्षम्मध्येनाप्राः पृथिवीमुपरेणादृँहीः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्रेणीः। अग्रेनीरित्यग्रेऽनीः। असि। स्वावेश इति सुऽआवेशः। उन्नेतॄणामित्युत्ऽनेतॄणाम्। एतन्य। वित्तात्। अधि। त्वा। स्थास्यति। देवः। त्वा। सविता। मध्वा। अनक्तु। सुपिप्पलाभ्य इति सुऽपिप्पलाभ्यः। त्वा। ओषधीभ्यः। द्याम्। अग्रेण। अस्पृक्षः। आ। अन्तरिक्षम्। मध्येन। अप्राः। पृथिवीम्। उपरेण। अदृꣳहीः॥२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सोऽभिषिक्तः सभाध्यक्षः कथं प्रवर्त्तेतेत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे सभाध्यक्ष! यथाग्रेणीरस्ति तथा त्वमसि उन्नेतृणां स्वावेशः सन्नेतस्यैतं राज्यं वित्तात्। हे राजन्! यथा ते त्वां राजपुरुषसमूहः सुपिप्पलाभ्य ओषधीभ्यो मध्वाऽनक्तु, एवं प्रजापुरुषसमूहोऽपि त्वां चानक्तु, त्वमग्रेण यशसा द्यामस्पृक्षो मध्यमेन नान्तरिक्षमाप्राः, उपरेण पृथिवीं प्राप्यैवाꣳदृहीः। देवः सविता सर्वप्रेरको जगदीश्वरस्त्वाऽधि स्थास्यति॥२॥
पदार्थः
(अग्रेणीः) यथाध्यापकाः शिष्यान् पिता स्वसन्तानान् वा पुरस्तादेव सुशिक्षया विद्यां प्रापयति, तथा (असि) (स्वावेशः) यथाप्तः शोभनं धर्ममाविशाति तथा नेता (उन्नेतॄणाम्) यथोन्नेतॄणां उत्कर्षप्रापयितॄणां राज्यं तथा (एतस्य) प्रकृतं राज्यं पालयितुम् (वित्तात्) विजानीहि (अधि) उपरिभावे (त्वा) त्वाम् (स्थास्यति) (देवः) अखिलराज्येश्वरः (त्वा) त्वाम् (सविता) सर्वस्य विश्वस्य जनिता (मध्वा) मधुरगुणेन (अनक्तु) सिञ्चतु (सुपिप्लाभ्यः) यथा सुष्ठु फलाभ्यः (त्वा) त्वाम् (ओषधीभ्यः) प्रसिद्धाभ्यः (द्याम्) विद्यान्यायप्रकाशम् (अग्रेण) पुरस्तात् (अस्पृक्षः) स्पृश। अत्र सर्वत्र लडर्थे लुङ्। (आ) समन्तात् (अन्तरिक्षम्) धर्मप्रचारस्यावकाशम् (मध्येन) मध्यमावस्थाविशेषेण (अप्राः) पिपृहि (पृथिवीम्) भूमिराज्यम् (उपरेण) उत्कृष्टनियमेन (अदृꣳहीः) प्राप्य वर्द्धस्व॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ७। १। ९) व्याख्यातः॥२॥
भावार्थः
नहि कश्चिज्जनो राजप्रजापुरुषैरस्वीकृतो राज्यमर्हति, न चापि राज्ञानादृतः साम्राज्यं कीर्त्यनुक्रमेण विना सैनापत्यं दण्डनेतृत्वं सर्वलोकाधिपतित्वं च॥२॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर वह तिलक किया हुआ सभाध्यक्ष कैसे वर्त्ते, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे सभाध्यक्ष! जैसे (अग्रेणीः) पढ़ाने वाला अपने शिष्यों को वा पिता अपने पुत्रों को उन के पठनारम्भ से पहिले ही अच्छी शिक्षा से उन्हें सुशील जितेन्द्रिय धार्मिकतायुक्त करता है, वैसे हम सभी के लिये तू (असि) है, (उन्नेतृणाम्) जैसे उत्कर्षता पहुंचाने वालों का राज्य हो, वैसे (स्वावेशः) अच्छे गुणों में प्रवेश करने वाले के समान होकर तू (एतस्य) इस राज्य के पालने को (वित्तात्) जान। हे राजन्! जैसे (त्वा) तुझे सभासद् जन (सुपिप्पलाभ्यः) अच्छे-अच्छे फलों वाली (ओषधीभ्यः) औषधियों से (मध्वा) निष्पन्न किये हुए मधुर गुणों से युक्त रसों से (अनक्तु) सीचें, वैसे प्रजाजन भी तुझे सीचें। तू इस राज्य में अपने (अग्रेण) प्रथम यश से (द्याम्) विद्या और राजनीति के प्रकाश को (अस्पृक्षः) स्पर्श कर (मध्येन) मध्य अर्थात् तदनन्तर बढ़ाए हुए यश से (अन्तरिक्षम्) धर्म के विचार करने के मार्ग को (आप्राः) पूरा कर और (उपरेण) अपने राज्य के नियम से (पृथिवीम्) इस भूमि के राज्य को प्राप्त होकर (अदृꣳहीः) दृढ़ कर बढ़ता जा और (देवः) समस्त राजाओं का राजा (सविता) सब जगत् को अन्तर्यामीपन से प्रेरणा देने वाला जगदीश्वर (त्वा) तुझ को राजा करके तेरे पर (स्थास्यति) अधिष्ठाता होकर रहेगा॥२॥
भावार्थ
प्रजा पुरुषों के स्वीकार किये विना राजा राज्य करने को योग्य नहीं होता, तथा राजा आदि सभा जिस को आदर से न चाहे, वह मन्त्री होने को वा कोई पुरुष अपनी कीर्ति की उत्तरोत्तर दृढ़ता के विना सेना का ईश्वर, यथायोग्य न्याय से दण्ड करने अर्थात् न्यायाधीश होने और राज्य के मण्डल की ईश्वरता के योग्य नहीं हो सकता॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
प्रजेने स्वीकारल्याखेरीज राजा राज्य करण्यायोग्य नसतो व राजा किंवा सभा ज्याचा आदर करत नाही तो मंत्री होण्यायोग्य नसतो किंवा कोणी व्यक्ती कीर्तिमान व सामर्थ्यवान असल्याखेरीज सेनापती बनू शकत नाही, तसेच यथायोग्य न्याय दिल्याखेरीज कोणी न्यायाधीश बनू शकत नाही व राज्यमंडळाचा प्रमुख होऊ शकत नाही.
इंग्लिश (2)
Meaning
O king, thou art our leader ; thou putteth upon the path of rectitude, even the leaders of a high order. Know thou this art of government. God the creator will rule over thee. Just as the state officials anoint thee with sweet juices and flower-laden herbs, so should the subjects do. Thy first duty is to undertake the spread of knowledge and the administration of justice. Thy second duty is to propagate religious truths. Thy foremost duty is to strengthen thy rule over the Earth.
Meaning
You are the leader on top of all those taking this polity high. Settled with confidence in your Dharma, know well this polity, this economy, and the people. Savita, blazing lord of power, light and generosity, would shower His blessings and protection from above. May the Lord anoint you with honey and bless you with nectareous herbs. With top initiative, touch the heaven (in matters of justice and enlightenment). At the middle level, fill the sky with peace, security and Dharmic conduct. At the ground level, strengthen the earth (with food, planning and employment).
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ সোऽভিষিক্তঃ সভাধ্যক্ষঃ কথং প্রবর্ত্তেতেত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সে তিলক কৃত অভিষিক্ত সভাধ্যক্ষ কীরকম ব্যবহার করিবেন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে সভাধ্যক্ষ ! যেমন (অগ্রেণী) অধ্যাপক নিজ শিষ্যদিগকে অথবা পিতা নিজ পুত্রদিগকে তাহাদিগের পঠনারম্ভের প্রথমেই সুশিক্ষা দ্বারা তাহাদিগকে সুশীল, জিতেন্দ্রিয় ধার্মিকতাযুক্ত করে সেইরূপ আমাদের সকলের জন্য তুমি (অসি) আছো । (উন্নেতৃৃণাম্) যেমন উৎকর্ষতা উপস্থিত কারীদিগের রাজ্য হউক সেইরূপ (স্বাবেশঃ) ভাল-ভাল গুণে প্রবেশকারীদিগের সমান হইয়া তুমি (এতস্য) এই রাজ্যের পালনকে (বিত্তাৎ) জান । হে রাজন্ । যেমন (স্বা) তোমরা সভাসদ্গণ (সুপিপ্পলাভ্যঃ) ভাল ভাল ফলযুক্ত (ওষধীভ্যঃ) ঔষধিসকলের দ্বারা (মধ্বা) নিষ্পন্ন কৃত মধুর গুণযুক্ত রস দ্বারা (অনক্তু) সিঞ্চন করিবে সেইরূপ প্রজাগণ ও তোমাকে সিঞ্চন করুক । তুমি এই রাজ্যে স্বীয় (অগ্রেণ) প্রথম যশ দ্বারা (দ্যাম্) বিদ্যা ও রাজনীতির প্রকাশকে (অস্পৃক্ষঃ) স্পর্শ কর । (মধ্যমেন) মধ্য অর্থাৎ তদন্তর বৃদ্ধি প্রাপ্ত যশ দ্বারা (অন্তরিক্ষম্) ধর্মের বিচার করিবার মার্গকে (আপ্রাঃ) পূর্ণ কর এবং (উপরেণ) নিজ রাজ্যের নিয়ম দ্বারা (পৃথিবীম্) এই ভূমির রাজ্য প্রাপ্ত হইয়া (অদৃহী) দৃঢ়পূর্বক অগ্রসর হইও না এবং (দেবঃ) সমস্ত রাজাদিগের রাজা (সবিতা) সব জগৎকে অন্তর্য্যামীত্ব দ্বারা প্রেরণকর্তা জগদীশ্বর (ত্বা) তোমাকে রাজা করিয়া তোমার উপর (স্থাস্যতি) অধিষ্ঠাতা হইয়া থাকিবে ॥ ২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- প্রজা পুরুষদিগের স্বীকৃতি বিনা রাজা রাজ্য করিবার যোগ্য হয়না তথা রাজাদি সভা যাহাকে আদরপূর্বক না চাহিবে সে মন্ত্রী হওয়ার অথবা কোন পুরুষ নিজের কীর্ত্তিকে উত্তরোত্তর দৃঢ়তা বিনা সেনার ঈশ্বর যথাযোগ্য ন্যায় পূর্বক দন্ড করিবার অর্থাৎ ন্যায়াধীশ হওয়ার এবং রাজ্য মণ্ডলের স্বামী হওযার যোগ্য হইতে পারে না ॥ ২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্রে॒ণীর॑সি স্বাবে॒শऽউ॑ন্নেতৃৃ॒ণামে॒তস্য॑ বিত্তা॒দধি॑ ত্বা স্থাস্যতি দে॒বস্ত্বা॑ সবি॒তা মধ্বা॑নক্তু সুপিপ্প॒লাভ্য॒স্ত্বৌষ॑ধীভ্যঃ । দ্যামগ্রে॑ণাস্পৃক্ষ॒ऽআऽন্তরি॑ক্ষং॒ মধ্যে॑নাপ্রাঃ পৃথি॒বীমুপ॑রেণাদৃꣳহীঃ ॥ ২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্রেণীরিত্যস্য শাকল্য ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ । দেবস্ত্বেত্যস্য স্বরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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