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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 33
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    यत्ते॑ सोम दि॒वि ज्योति॒र्यत्पृ॑थि॒व्यां यदु॒राव॒न्तरि॑क्षे। तेना॒स्मै यज॑मानायो॒रु रा॒ये कृ॒ध्यधि॑ दा॒त्रे वो॑चः॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ते॒। सो॒म॒। दि॒वि। ज्योतिः॑। यत्। पृ॒थि॒व्याम्। यत्। उ॒रौ। अ॒न्तरि॑क्षे। तेन॑। अ॒स्मै। यज॑मानाय। उ॒रु। रा॒ये। कृ॒धि॒। अधि॑। दात्रे॒। वो॒चः॒ ॥३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते सोम दिवि ज्योतिर्यत्पृथिव्याँ यदुरावन्तरिक्षे तेनास्मै यजमानायोरु राये कृध्यधि दात्रे वोचः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। सोम। दिवि। ज्योतिः। यत्। पृथिव्याम्। यत्। उरौ। अन्तरिक्षे। तेन। अस्मै। यजमानाय। उरु। राये। कृधि। अधि। दात्रे। वोचः॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 33
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    ईदृशः सभापतिः प्रजायै किं प्रापयितुं शक्नोतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे सोम सभापते! ते तव यत् दिवि यत् पृथिव्यां यदुरावन्तरिक्षे ज्योतिरिव राज्यकर्मास्ति, तेन त्वं दात्रेऽस्मै यजमानायोरुकृधि रायेऽधिवोचश्च॥३३॥

    पदार्थः

    (यत्) (ते) तव (सोम) सकलैश्वर्यप्रेरक! (दिवि) सूर्य्ये (ज्योतिः) ज्योतिरिव (यत्) (पृथिव्याम्) (यत्) (उरौ) विस्तृते (अन्तरिक्षे) अन्तराल आकाशे (तेन) (अस्मै) (यजमानाय) परोपकारार्थयज्ञानुष्ठात्रे (उरु) बहु (राये) धनाय (कृधि) कुरु (अधि) अधिकार्थे (दात्रे) (वोचः) उच्याः, अत्र लिङर्थे लुङ्। छन्दस्य माङ्योगेऽपि। (अष्टा॰६।४।७५) इत्य[भावः॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ४। १२-१५ व्याख्यात॥३३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सभापतिस्स्वराज्योत्कर्षेण विद्यादिशुभगुणकर्मसु सर्वाञ्जनान् सुशिक्ष्य निरालस्यान् संपादयेत्, यतस्ते पुरुषार्थमनुवर्तिनो भूत्वा धनादिपदार्थान् सततं वर्द्धयेयुरिति॥३३॥

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    विषयः

    ईदृश: सभापतिः प्रजायै किं प्रार्पयितुं शक्नोतीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे सोम=सभापते सकलैश्वर्य्यप्रेरक! ते=तव यत् दिवि सूर्य्ये, यत् पृथिव्यां भूमौ यत् उरौ विस्तृते अन्तरिक्षे अन्तराल आकाशे [ज्योतिः]=ज्योतिरिव राज्यकर्माऽस्ति तेन त्वं दात्रे=अस्मै यजमानाय परोपकारार्थयज्ञाऽनुष्ठात्रे उरु बहु कृधि कुरु, राये धनाय अधि+वोचः अधिकमुच्याः च ।। ६ । ३३।। [हे सोम=सभापते! ते=तव यत्.....[ज्योतिः]=ज्योतिरिव राज्यकर्माऽस्ति तेन त्वं दात्रे=अस्मै यजमानायोरु कृधि, रायेऽधिवोचश्च]

    पदार्थः

    (यत्) (ते) तव (सोम) सकलैश्वर्यप्रेरक! (दिवि) सूर्य्ये (ज्योतिः) ज्योतिरिव (यत्) (पृथिव्याम्) (यत्) (उरौ) विस्तृते (अन्तरिक्षे) अन्तराल आकाशे (तेन) (अस्मै) (यजमानाय) परोपकारार्थयज्ञानुष्ठात्रे (उरु) बहु (राये) धनाय (कृधि) कुरु (अधि) अधिकार्थे (दात्रे) (वोच:) उच्याः। अत्र लिङर्थे लुङ्। छन्दस्य माङ्योगेऽपि ॥ ६ । ४। ७५ ॥ इत्वडभावः ॥ अयं मंत्रः शत० ३।६।४।१२-१५ व्याख्यातः॥ ३३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ।। सभापतिः स्वराज्योत्कर्षेण विद्यादिशुभगुणकर्मसु सर्वाञ्जनान् सुशिक्ष्य निरालस्यान् सम्पादयेत्, यतस्ते पुरुषार्थमनुवर्तिनो भूत्वा धनादिपदार्थान् सततं वर्द्धयेयुरिति॥ ६ । ३३ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    राये=धनादिपदार्थानां वृद्धये॥

    विशेषः

    मधुच्छन्दाः। सोम:=ऐश्वर्यदात्ता सभापतिः॥ भुरिगार्षी बृहती। मध्यमः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐसा सभापति प्रजा को क्या लाभ पहुंचा सकता है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सोम) समस्त ऐश्वर्य के निमित्त प्रेरणा करने हारे सभापति! (ते) तेरा (यत्) जो (दिवि) सूर्यलोक में (पृथिव्याम्) पृथिवी में और (यत्) जो (उरौ) विस्तृत (अन्तरिक्षे) आकाश में (ज्योतिः) जैसे ज्योति हो, वैसा राजकर्म है (तेन) उससे तू (अस्मै) इस परोपकार के अर्थ (यजमानाय) यज्ञ करते हुए यजमान के लिये (उरु) (कृधि) अत्यन्त उपकार कर तथा (राये) धन बढ़ने के लिये (अधि, वोचः) अधिक-अधिक राज्य-प्रबन्ध कर॥३३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सभापति राजा अपने राज्य के उत्कर्ष से सब जनों को निरालस्य करता रहे, जिससे वे पुरुषार्थी होकर धनादि पदार्थों को निरन्तर बढ़ावें॥३३॥

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    विषय

    राष्ट्रपति क्या करे ?

    पदार्थ

    १. हे ( सोम ) = विनीत राजन्! ( ते ) = तेरे ( दिवि ) = मस्तिष्क में ( यत् ) = जो ( ज्योतिः ) = प्रकाश है ( यत् ) = जो ( पृथिव्याम् ) = शरीर में ( ज्योतिः ) = स्वास्थ्य का प्रकाश है और ( यत् ) = जो ( उरौ ) = इस विशाल ( अन्तरिक्षे ) = हृदाकाश में ( ज्योतिः ) = प्रकाश है ( तेन ) = उससे अर्थात् मस्तिष्क, हृदय व शरीर [ Head, Heart and Hand ] तीनों की शक्तियों से—प्राणपण से— ( अस्यै ) = इस ( यजमानाय ) =  यज्ञ के स्वभाववाले प्रजावर्ग के लिए ( राये ) = धन-प्राप्ति के लिए ( उरु कृधि ) = अत्युत्तम व्यवस्था कर। तेरे राष्ट्र में जो आर्यपुरुष हैं—यज्ञादि उत्तम कार्यों को करनेवाले लोग हैं, उनके लिए तू ऐसी व्यवस्था कर कि वे जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक धनों को अवश्य कमा सकें। 

    २. और जो यजमानों से विपरीत घात-पात आदि के कार्यों में लगे हुए हैं उन ( दात्रे ) = [ दाप् लवने ] काट-छाँट करनेवालों के लिए ( अधिवोचः ) = आधिक्येन उपदेश दे। ज्ञानी पुरुष ऐसे लोगों के अन्दर प्रचार-कार्य करके उनके जीवनों को अच्छा बनाने का प्रयत्न करें। अथर्व के मन्त्र अग्निः पूर्व आरभताम् के अनुसार ब्राह्मण पहले अपने कार्य को प्रारम्भ करें। वे ऐसे लोगों को ज्ञान देने का उपक्रम करें। यदि इस ज्ञान-प्रचार के कार्य का अनुकूल प्रभाव न हो तो विवशता में प्रेन्द्रो नुदतु बाहुमान् = शक्तिशाली इन्द्र को उन्हें दण्ड देना ही है, परन्तु दण्ड से ही प्रारम्भ न कर दिया जाए। पहले ज्ञान-प्रचार का कार्य, पीछे दण्ड। 

    ३. इसप्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्र में दो पुरुष हैं [ क ] यजमान [ ख ] दात्र। यजमान ही आर्य है, दात्र ही दस्यु हैं। राजा ने आर्यों के लिए आवश्यक धन-प्राप्ति के साधनों को जुटाना है और दस्युओं को ज्ञान-प्रसार की व्यवस्था से आर्य बनाने का प्रयत्न करना है। विवशता में दण्ड देकर उन्हें घात-पात से रोकना तो होगा ही।

    भावार्थ

    भावार्थ — राष्ट्रपति वा राजा पूर्ण प्रयत्न व सुव्यवस्था से राज्य में लोगों को धन-प्राप्ति के उचित साधन प्राप्त कराए और घात-पात की मनोवृत्तिवाले लोगों की मनोवृत्ति को बदलने के लिए उनमें खूब [ अधि ] ज्ञान का प्रचार कराए [ वोचः ]।

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    विषय

    प्रजाओं के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे सोम ! सर्व राष्ट्रप्रेरक राजन् ! सभाध्यक्ष ! (ते) तेरा (यत्) जो ( दिवि ज्योतिः ) सूर्य में अर्थात् सूर्य के समान प्रखर तेजस्वी रूप से रहने में जो तेज है और ( यत् पृथिव्याम् ) जो तेरा तेज पृथिवी पर अर्थात् पृथिवी के समान सर्वाश्रय बने रहने में जो तेरा पराक्रम है और (यद् उरौ अन्तरिक्षे ) जो विशाल अन्तरिक्ष अर्थात् वायु के समान सबके प्राणों का स्वामी होने में जो तेरा तेज है ( तेन ) उसले ( अस्मै यजमानाय ) इस यज्ञ सम्पादन करने वाले राष्ट्र यज्ञ के कर्त्ता, ( उरुराये ) महान् धनादि ऐश्वर्य सम्पन्न राष्ट्र के लिये समस्त कार्य ( कृधि ) तू सम्पन्न कर । और ( दात्रे ) तुझे अधिकार और वेतन आदि देने वाले इस राष्ट्र के लिये ही तू (अधिवोचः ) अधिकार पूर्वक आज्ञा प्रदान किया कर । शत० ३ । ९ । ४ । १२ ॥ 

    टिप्पणी

     ३३ - ० यदुरा अन्त०' इति काण्व० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     सोमो देवता । भुरिगार्षी बृहती । मध्यमः ॥ 

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    विषय

    ऐसा सभापति प्रजा को क्या लाभ पहुँचा सकता है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    भाषार्थ

    हे (सोम) सकल ऐश्वर्य के प्रेरक सभापते! (ते) तेरा जो (दिवि) सूर्य में, जो (पृथिव्याम्) भूमि पर और जो (उरौ) विस्तृत (अन्तरिक्षे) मध्यवर्ती आकाश में [ज्योतिः] ज्योति के समान राज्य कर्म है, उससे आप (दात्रे) परोपकारार्थ यज्ञ करने वाले इस यजमान के लिये (उरु) अपने राज्य को उत्कृष्ट (कृधि) बना तथा (राये) धनादि पदार्थों को (अधिवोचः) अत्यन्त बढ़ा।।६।३३।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमाअलङ्कार है। सभापति राजा अपने राज्य के उत्कर्ष से सब लोगों को विद्यादि शुभ गुण-कर्मों में सुशिक्षित करके, पुरुषार्थी बनावे, जिससे वे पुरुषार्थ करके धन आदि पदार्थों को सदा बढ़ावें ॥ ६। ३३।।

    प्रमाणार्थ

    (वोचः) यहाँ लिङ् अर्थ में लुङ् लकार है। 'बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि (अ० ६। ४। ७५ ) इस सूत्र से'अट्' का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।४।१२-१५ ) में की गई है। ६। ३३।।

    भाष्यसार

    १. सभापति राजा और प्रजा--पूर्व मन्त्र में प्रतिपादित गुणों से भूषित राजा प्रजा को क्या प्राप्त करा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि सकल ऐश्वर्य को देने वाला सभापति राजा सूर्य, पृथिवी और विशाल आकाश में अपने राज्य के उत्कर्ष से सब लोगों को विद्यादि शुभ गुण-कर्म-स्वभावों में प्रशिक्षित करके आलस्य आदि दोषों से दूर रखता है। परोपकार के लिये यज्ञ करने वाले पुरुषार्थी लोगों के धन आदि पदार्थों की सदा वृद्धि करता है। २. अलङ्कार-- मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त हैं, इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि राज्यकर्म सूर्य, पृथिवी और आकाश में विद्यमान ज्योति के समान है।। ६। ३३।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजाने आपल्या राज्याचा उत्कर्ष करून लोकांना उद्योगी बनवावे व पुरुषार्थी बनून सतत धन वाढवावे.

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    विषय

    अशा सभापती प्रजेला कशाप्रकारे व कितीप्रकारे लाभकारी होऊ शकतो, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (सोम) समस्त ऐश्‍वर्याच्या प्राप्तीसाठी आम्हास प्रेरणा देणारे, सभाध्यक्ष महोदय, (ते) आपल्या राजकर्माची कीर्ती सर्वत्र विस्तीर्ण आहे ज्याप्रमाणे (दिवि) सूर्यलोकात (पृथिव्याम्) पृथ्वीवर आणि (उरौ) विशाल (अन्तरिक्षे) आकाशात (यत) जो (ज्योतिः) प्रकाश पसरलेला वा व्याप्त आहे, (त्याप्रमाणे आपली कीर्ती सर्वत्र व्याप्त आहे) (तेन) त्या आपल्या कार्याद्वारे (अस्मै) परोपकारमय या यज्ञकार्यासाठी (यजमानाय) आपण या यजमानास (उरु) (कृधि) उपकृत करा (या यज्ञिकजनांना आपले रक्षण व सहाय्य प्राप्त असावे) (राये) राज्याच्या धन-संपदेच्या उत्कर्षासाठी (अधि, वोच) आपण अधिकाधिक उत्तम प्रबंध करीत रहा. ॥33॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. सभाध्यक्ष राजाचे कर्त्तव्य आहे की त्याने राज्याच्या उत्कर्षाकरिता सर्व प्रजाजनांना उद्योगशील व कार्यप्रवण ठेवावे, आळसी राहू देऊ नये. याप्रकारे प्रजाजनांनी पुरुषार्थी व कर्मशील राहून धन-संपत्ती आदी पदार्थांची सतत वृद्धी करावी. ॥33॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king thy rule extends over Heaven, Earth and mid-air wide region. With that power show obligation to this worshipper who performs the yajna, and has recourse to measures conducive to the propagation of national wealth.

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    Meaning

    Soma, blessed lord of the land, the light of your power and glory shines over the earth, in the sky and in the heaven above. By virtue of that, and for the sake of this generous man of yajna of the social order, make it richer, expand it further, and proclaim: He shall grow happier and more prosperous.

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    Translation

    O blissful Lord, with your light, which you have in heaven, on the earth, and in the vast midspace, bestow on this sacrificer plenty of vast riches. Give comfort to the donor. (1)

    Notes

    Datre vocah, give comfort to the donor.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ঈদৃশঃ সভাপতিঃ প্রজায়ৈ কিং প্রাপয়িতুং শক্নোতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    এমন সভাপতি প্রজাকে কী লাভ দিতে পারে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (সোম) সমস্ত ঐশ্বর্য্যের নিমিত্ত প্রেরণাকারী সভাপতি । (তে) তোমার (য়ৎ) যাহা (দিবি) সূর্য্যলোকে (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীতে এবং (য়ৎ) যাহা (উরৌ) বিস্তৃত (অন্তরিক্ষে) আকাশে (জ্যোতিঃ) জ্যোতিসদৃশ, সেইরূপ রাজকর্ম (তেন) তাহার দ্বারা তুমি (অস্মৈ) এই পরোপকারের অর্থ (য়জমানায়) যজ্ঞ করিয়া যজমানের জন্য (উরু) (কৃধি) অত্যন্ত উপকার কর তথা (রায়ে) ধনবৃদ্ধি হেতু (অধি, বোচঃ) অধিকাধিক রাজ্য-ব্যবস্থা কর ॥ ৩৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালংকার আছে । সভাপতি রাজা স্বীয় রাজ্যের উৎকর্ষ দ্বারা সকলকে নিরালস্য করিতে থাকুক যাহাতে তাহারা পুরুষকার সম্পন্ন হইয়া ধনাদি পদার্থকে নিরন্তর বৃদ্ধি করিতে থাকে ॥ ৩৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ত্তে॑ সোম দি॒বি জ্যোতি॒র্য়ৎপৃ॑থি॒ব্যাং য়দু॒রাব॒ন্তরি॑ক্ষে ।
    তেনা॒স্মৈ য়জ॑মানায়ো॒রু রা॒য়ে কৃ॒ধ্যধি॑ দা॒ত্রে বো॑চঃ ॥ ৩৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়ত্ত ইত্যস্য মধুচ্ছন্দাঃ ঋষিঃ । সোমো দেবতা । ভুরিগার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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