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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    137

    देवी॑रापः शु॒द्धा वो॑ढ्व॒ꣳ सुप॑रिविष्टा दे॒वषु॒ सुप॑रिविष्टा व॒यं प॑रि॒वे॒ष्टारो॑ भूयास्म॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवीः॑। आ॒पः॒। शु॒द्धाः। वो॒ढ्व॒म्। सुप॑रिविष्टा॒ इति॑ सुऽप॑रिविष्टाः॒। दे॒वेषु॑। सुप॑रिविष्टा॒ इति॒ सुऽप॑रिविष्टाः॒। व॒यम्। प॒रि॒वे॒ष्टार॒ इति॑ परिऽवे॒ष्टारः॑। भू॒या॒स्म॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीरापः शुद्धा वोढ्वँ सुपरिविष्टा देवेषु सुपरिविष्टा वयम्परिवेष्टारो भूयास्म ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीः। आपः। शुद्धाः। वोढ्वम्। सुपरिविष्टा इति सुऽपरिविष्टाः। देवेषु। सुपरिविष्टा इति सुऽपरिविष्टाः। वयम्। परिवेष्टार इति परिऽवेष्टारः। भूयास्म॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ वटुभिर्ब्रह्मचारिणीभिश्च गुरुपत्न्यः कथं सम्माननीया इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे कुमार्यः! यथापः सद्गुणेषु व्याप्ता शुद्धाः देवीः विदुष्यः सत्स्त्रियो देवेषु सद्विद्यादिदिव्यगुणेषु विद्वत्सु स्वपतिषु सुपरिविष्टाः कृतब्रह्मचर्याः स्वसमान् वरान् स्वीकृतवत्यः, यथा च ते विद्वांसस्ता विदुषीः प्राप्तास्तथा यूयं स्त्रीभावेनास्मान् प्राप्नुतैवं वयमपि परिवेष्टारो भूयास्म॥१३॥

    पदार्थः

    (देवीः) सद्विद्याप्रकाशवत्यः (आपः) आप्नुवन्ति सद्गुणान् यास्ताः (शुद्धाः) सत्कर्म्मानुष्ठानपूताः (वोढ्वम्) स्वयंवरविवाहविधिं प्राप्नुत। अत्र वह प्रापण इत्यस्माल्लोटि मध्यमबहुवचने बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७३] इति शपो लुकि कृते सहिवहोरोदवर्णस्य। (अष्टा॰६।३।११२) इत्यनेनौकारः (सुपरिविष्टाः) तत्तत्सेवासम्मुख्यां एव। (देवेषु) सद्विद्यादिदिव्यगुणेषु विद्वत्सु (सुपरिविष्टाः) तथाभूता एव (वयम्) (परिवेष्टारः) परितो व्याप्ताः (भूयास्म)॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ८। २। ३) व्याख्यातः॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विदुष्यो विदुषां स्त्रियः पातिव्रत्यधर्म्मतत्परा भवन्ति, तथा ब्रह्मचारिण्यः कन्यास्तद्गुणस्वभावा भवेयुर्ब्रह्मचारिण्यो गुरुजनस्वभावाः स्युः, यतः सुशिक्षया स्त्रीपुत्रादिरक्षणशीला भवेयुरिति॥१३॥

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    विषयः

    अथ वटुभिर्ब्रह्मचारिणीभिश्च गुरुपत्न्यः कथं सम्माननीया इत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे कुमार्यः। यथाऽप:=सद्गुणेषु व्याप्ताः प्राप्नुवन्ति सद्गुणान् यास्ताः, शुद्धाः सत्कर्माऽनुष्ठानपूताः, देवीः=विदुष्य: सत्स्त्रियः सद्विद्याप्रकाशवत्यो, देवेषु=सद्विद्यादिदिव्यगुणेषु विद्वत्सु स्वपतिषु सद्विद्यादिदिव्यगुणेषु विद्वत्सु सुपरिविष्टाः तत्तत्सेवासम्मुख्य एव,कृतब्रह्मचर्य्या: स्वसमान्वरान् स्वीकृतवत्यो; यथा च ते विद्वांसस्ता विदुषी: प्राप्तास्तथा यूयं स्त्रीभावेनाऽस्मान् [वोड्ढवम्]=प्राप्नुत, स्वयंवरविवाहविधिं प्राप्नुत। एवं [सुपरिविष्टाः] तथा भूता एव वयमपि परिवेष्टारः परितो व्याप्ताः भूयास्म ।। ६ । १३।। [हे कुमार्यः! यथा......देवीः=विदुष्यः सस्त्रियो देवेषु=.....विद्वत्सु सुपरिविष्टाः कृतब्रह्मचर्याः स्वसमान्वरान् स्वीकृतवत्यो, यथा च ते विद्वांसस्ता विदुषीःप्राप्तास्तथा यूयं स्त्रीभावेनास्मान् [वोड्ढवम्]प्राप्नुत, एवं [सुपरिविष्टाः] वयमपि परिवेष्टारो भूयास्म]

    पदार्थः

    (देवीः) सद्विद्याप्रकाशवत्यः (आप) आप्तवन्ति सद्गुणान् यास्ता: (शुद्धाः) सत्कर्म्मानुष्ठानपूताः (वोड्ढवम्) स्वयंवरविवाहविधिं प्राप्नुत। अत्र वह प्रापण इत्यस्माल्लोटि मध्यमबहुवचने। 'बहुलं छन्दसि' इति शपो लुकि कृते, 'सहिवहोरोदवर्णस्य॥ अ० ६ । ३ । ११२॥इत्यनेनौकारः अत्र वर्त्तमाने लोट्। (सुपरिविष्टाः) तत्तत्सेवासन्मुख्य एव। (देवेषु) सद्विद्यादिदिव्यगुणेषु विद्वत्सु (सुपरिविष्टाः) तथा भूता एव (वयम्) (परिवेष्टार:) परितो व्याप्ताः (भूयास्म)॥ अत्र मन्त्रः शत० ३। ८। २। ३ व्याख्यातः ॥ १३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ यथा विदुष्यो विदुषां स्त्रियः पातिव्रत्यधर्मतत्परा भवन्ति, तथा ब्रह्मचारिण्यः कन्यास्तद्गुणस्वभावा भवेयुर्ब्रह्मचारिण्यो गुरुजनस्वभावाः स्युः, यतः सुशिक्षया स्त्रीपुत्रादिरक्षणशीला भवेयुरिति ।। ६ । १३ ।।

    विशेषः

    मेधातिथिः। आपः=सद्गुणेषु व्याप्ताः स्त्रियः॥ निचृदार्ष्यनुष्टुप्। गान्धारः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ब्रह्मचारी बालक और ब्रह्मचारिणी कन्याओं को गुरुपत्नियों का कैसे मान करना चाहिये, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे कुमारियो! तुम जैसे (आपः) श्रेष्ठगुणों में रमण करने वाली (शुद्धाः) सत्कर्माऽनुष्ठान से पवित्र (देवीः) विद्या प्रकाशवती विदुषी स्त्रीजन (देवेषु) श्रेष्ठ विद्वान् पतियों के निमित्त (सुपरिविष्टाः) और उन की सेवा करने को सम्मुख प्रवृत्त होकर अपने समान पतियों को (वोढ्वम्) प्राप्त होती हैं और वे विद्वान् पतिजन उन स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे तुम हो और हम भी (परिवेष्टारः) उस कर्म की योग्यता को (भूयास्म) पहुँचें।॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विदुषी अर्थात् विद्वानों की स्त्री पातिव्रत धर्म में तत्पर रहती हैं, वैसे ब्रह्मचारिणी कन्या भी उनके गुण और स्वभाव वाली हों और ब्रह्मचारी भी गुरुजनों की शिक्षा से स्त्री और पुरुष आदि की रक्षा करने में तत्पर हों॥१३॥

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    विषय

    आचार्य

    पदार्थ

    दिव्य जीवन बनाने के लिए माता-पिता आचार्यों से प्रार्थना करते हैं कि १. ( देवीः ) =  ज्ञान की ज्योति से चमकनेवाले ( आपः ) = रेतस् के पुञ्ज [ आपः रेतस् ] अथवा आप्त ( शुद्धाः ) = शुद्ध मनोवृत्तिवाले आचार्यो! ( वोड्ढ्वम् ) = [ ‘वह’ प्रापणे = ‘नी’ उपनयन ] आप इन विद्यार्थियों को अपने समीप लाइए, उनका उपनयन कीजिए। वेद के आचार्य उपनयनमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः इन शब्दों के अनुसार उन्हें अपने गर्भ में धारण कीजिए। माता जैसे गर्भस्थ बालक की रक्षा करती है आप उसी प्रकार इन विद्यार्थियों के सदाचार आदि की रक्षा कीजिए। 

    २. ये विद्यार्थी ( सुपरिविष्टाः ) = सुपरिविष्ट हों, अर्थात् इन्हें आपके द्वारा ज्ञान का भोजन उत्तमता से परोसा जाए। ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द में भी ज्ञान के भक्षण की भावना है। 

    ३. ( देवेषु ) = विद्वान् आचार्यों के समीप ( सुपरिविष्टाः ) = खूब उत्तमता से परोसे हुए ज्ञान को, अर्थात् आचार्यों के समीप रहकर सब प्राकृतिक देवों से सम्बन्धित ज्ञान को प्राप्त करनेवाले ( वयम् ) = हम ( परिवेष्टारः ) = इस ज्ञान के भोजन के परोसनेवाले ( भूयास्म ) = बनें। ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान को औरों तक पहुँचानेवाले बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ — राष्ट्र में आचार्य दिव्य ज्योतिवाले, शक्तिसम्पन्न व शुद्ध वृत्तिवाले हों। इनके समीप रहकर विद्यार्थी ज्ञान का भोजन प्राप्त करें और स्वयं ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान का सर्वत्र प्रसार करनेवाले हों।

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    विषय

    उत्तम कन्याओं का उत्तम पात्रों में प्रदान, प्रजाओं का उत्तम शासक के हाथ में शासन ।

    भावार्थ

     हे ( आपः) आप्तगुणों से युक्त या प्राप्त होने योग्य, या जलों के समान स्वच्छ ( देवीः) देवियो, विदुषी स्त्रियो! आप लोग ( शुद्धाः ) शुद्ध आचरण वाली होकर ( वोड् ढ्वम् ) स्वयंवर पूर्वक विवाह करो । और तुम कन्याजन ! ( देवेषु ) विद्वान्  पुरुषों में ही (सु परिविष्टाः) उत्तम रीति से उनके अर्धांङ्गिनियों के रूप में उनको प्रदान की जाओ । कन्यायें उत्तर दें--हे विद्वान् पुरुषो ! ( वयम् ) हम कन्याएं (सुं परि विष्टाः) विद्वान् पुरूषों के हाथों दी जावें। पुरुष कहें ( वयम् ) हम ( परिवेष्टारः )विवाह करने वाले ( भूयास्म ) हों । उनका पाणिग्रहण करें ॥
    राजा प्रजा पक्ष में-- राजा कहता है- हे प्रजाओ ! तुम शुद्ध रूप से आज्ञा को धारण करो और ( देवेषु) विद्वानों के आश्रय में सुख से वस कर रहो । प्रजा कहे--हम सुख से हैं । राज गण कहें --हम प्रजा जनों के उत्तम रक्षक बनें । अर्थात्  राजा प्रजा का व्यवहार स्वयंवृत पति पत्नी के समान हो ॥ शत० ३। ८ । २ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आपो देवताः । निचृदार्षी अनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥

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    विषय

    अब ब्रह्मचारी बालक और ब्रह्मचारिणी कन्याओं को गुरुपत्नियों का कैसे मान करना चाहिये, यह उपदेश किया जाता है।।

    भाषार्थ

    हे कुमारियो! जैसे (आपः) शुभ गुणों को प्राप्त करने वाली (शुद्धा) शुभ कर्मों के अनुष्ठान से पवित्र (देवीः) श्रेष्ठ विद्या से प्रकाशित विदुषी स्त्रियाँ (देवेषु) उत्तम विद्या आदि दिव्य गुणों वाले विद्वान् पतियों में (सुपरिविष्टाः) सेवा भाव से प्रविष्ट होकर, ब्रह्मचर्यपूर्वक अपने समान गुण वाले वरों को प्राप्त हुई हैं और जैसे वे विद्वान् पुरुष उन विदुषी स्त्रियों को प्राप्त हुए हैं, वैसे तुम स्त्रीभाव से हमें [वोड्व्ोम्] स्वयंवर विवाह विधि से प्राप्त होओ, इसी प्रकार [सुपरिविष्टाः] रक्षा भाव से तुम में प्रविष्ट होकर हम (परिवेष्टार:) तुम्हारे सब ओर विद्यमान (भूयास्म) रहें, रक्षक बनें।। ६। १३।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। जैसे विदुषी अर्थात् विद्वानों की स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म में तत्पर रहती हैं वैसे ब्रह्मचारिणी कन्यायें विदुषी स्त्रियों के गुण और स्वभाव वाली हों, ब्रह्मचारिणियाँ अपने गुरुजनों के समान स्वभाव वाली हों जिससे उत्तम शिक्षा से स्त्री और पुत्र आदि की रक्षा करने वाली हों ।। ६ । १३ ।।

    प्रमाणार्थ

    (वोड्व्ाम्) यहाँ प्रापण अर्थ वाली 'वह्' धातु से लोट् लकार के मध्यम पुरुष में 'बहुलं छन्दसि' [अ० २।४।७३] सूत्र से 'शप्' का लुक् करके 'सहिवहोरोदवर्णस्य' (अ० ६। ३। ११२) इस सूत्र से अकार को ओकार करके 'वोड्व् म्' सिद्ध होता है। यहाँ वर्तमान-काल के अर्थ में लोट् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३। ८।२।३ ) में की गई है।। ६। १३।।

    भाष्यसार

    १. ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणियाँ गुरुपत्नियों का कैसे सम्मान करें-- जैसे सद्गुणों को प्राप्त करने वाली, शुभ कर्मों के अनुष्ठान से पवित्र, सद्विद्या से प्रकाशित विदुषी श्रेष्ठ स्त्रियाँ, श्रेष्ठ विद्यादि दिव्य गुणों वाले विद्वान् पतियों को ब्रह्मचर्य करके अपने समान वरों को प्राप्त हुई हैं और जैसे विद्वान् लोग उन विदुषियों को प्राप्त हुये हैं वैसे ब्रह्मचारिणी कन्यायें स्त्रीभाव से स्वयंवर विवाह विधि से विद्वान् पतियों को प्राप्त हों। जैसे विदुषी स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करती हैं वैसे ब्रह्मचारिणी कन्यायें भी पतिव्रत धर्म का पालन करें। ब्रह्मचारी तथा ब्रह्मचारिणियाँ अपने गुरुजनों के श्रेष्ठ स्वभाव का अनुकरण करें जिससे वे उत्तम शिक्षा से स्त्री तथा अपने पुत्र आदि की रक्षा करने में समर्थ हो सकें। २. अलङ्कार–मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त हैं इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि ब्रह्मचारिणी कन्यायें विदुषी स्त्रियों के समान आचरण करें।। ६। १३।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान पुरुषांच्या विदुषी स्त्रिया पातिव्रत्यात दृढ असतात त्याप्रमाणेच ब्रह्मचारिणी मुलींनी दृढ बनावे. ब्रह्मचाऱ्यांनीही गुरूपासून शिक्षण घ्यावे व स्त्री-पुरुषांचे तत्परतेने रक्षण करावे.

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    विषय

    आता ब्रह्मचारी बालक आणि ब्रह्मचारिणी कन्या यांनी गुरुपत्नीचा कशाप्रकारे मान-सन्मान करावा, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे कुमारिकांनो, (आपः) श्रेष्ठ गुणांत रमण करणार्‍या गुणवती आणि (शुद्धाः) सत्कर्मांचे आचरण करणार्‍या म्हणून पवित्र तसेच (देवीः) विद्येमुळे प्रकाशवती अशा विदुषी स्त्रिया (देवेषु) दिव्यगुणमुक्त श्रेष्ठ पती मिळण्याकरिता (सुपरिविष्टाः) व त्यांची सेवा करण्याकरिता (गुण, कर्म, स्वभावादीनी) आपल्या सारखे असलेले पती (वोढ्वम्) प्राप्त करतात तसेच ते विद्वान दिव्यगुणयुक्त पती देखील आपल्या सारख्या स्त्रीला पत्नी म्हणून निवडतात, त्याप्रमाणे तुम्ही देखील व्हा. (गुण, कर्म, स्वभावाने आपल्यासदृश असलेला पती निवडा) आम्ही देखील (परिवेष्टा) तशा सेवा कर्माच्या पात्रतेपर्यंत (भूयास्म) पोहचण्याचे यत्न करावेत. (सेवाभावी, विद्वान आणि गुणवान होण्यास सिद्ध व्हावे) ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे एक विदुषी अर्थात विद्वानाची पत्नी सदैव पातिव्रत्यधर्मासाठी तत्पर असते, त्याप्रमाणे ब्रह्मचारिणी कन्या देखील त्या विदुषी स्त्रियांसारख्या समान गुण, कर्म आणि स्वभाव असणार्‍या व्हाव्यात. तसेच ब्रह्मचारी कुमारांनीदेखील गुरुजनांकडून विद्या-शिक्षा ग्रहण करून स्त्री आणि पुरुषांची रक्षा करण्याच्या कामी सदा तत्पर असावयास हवे. ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O girls, just as women, endowed with noble qualities, pure, and highly educated are married to their deserving husbands, and serve them faithfully ; and educated husbands are married to worthy wives, so should ye be married ; and so shall we be joined in wedlock.

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    Meaning

    Women, pure and cool as celestial waters, marry by choice and settle with noble men in security and protection all round. So should we, men, settled and secure with the women, be their guardians and all-round protectors, in love and duty.

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    Translation

    O water divine, pure and well-provided, carry our oblations to Nature's bounties. May we, being well provided become providers for others. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ বটুভির্ব্রহ্মচারিণীভিশ্চ গুরুপত্ন্যঃ কথং সম্মাননীয়া ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন ব্রহ্মচারী বালক ও ব্রহ্মচারিণী কন্যাদিগকে গুরুপত্নীদিগের কেমন মান করা উচিত, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে কুমারীগণ ! তোমরা যেমন (আপঃ) শ্রেষ্ঠগুণে রমণকারিণী (শুদ্ধাঃ) সৎকমাঽর্নুষ্ঠান দ্বারা পবিত্র (দেবীঃ) বিদ্যা প্রকাশবতী বিদুষী স্ত্রীগণ (দেবেষু) শ্রেষ্ঠ বিদ্বান্ পতিদিগের নিমিত্ত (সুপরিবিষ্টাঃ) এবং তাহাদের সেবা করিতে সম্মুখ প্রবৃত্ত হইয়া নিজ সমান পতিদিগকে (বোঢ্বম্) প্রাপ্ত হও এবং সেই বিদ্বান্ পতিগণ সেই সব স্ত্রীদিগকে প্রাপ্ত হয় সেইরূপ তোমরা হও এবং আমরাও (পরিবেষ্টা) সেই কর্মের যোগ্যতা (ভূয়াস্ম) প্রাপ্ত হই ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদুষী অর্থাৎ বিদ্বান্দিগের স্ত্রী পাতিব্রত ধর্মে তৎপর থাকে সেইরূপ ব্রহ্মচারিণী কন্যাও তাহাদের গুণ ও স্বভাব যুক্ত হউক এবং ব্রহ্মচারীও গুরুজনদের শিক্ষা দ্বারা স্ত্রী ও পুরুষাদির রক্ষা করিতে তৎপর হউক ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দেবী॑রাপঃ শু॒দ্ধা বো॑ঢ্ব॒ꣳ সুপ॑রিবিষ্টা দে॒বষু॒ সুপ॑রিবিষ্টা ব॒য়ং প॑রি॒বে॒ষ্টারো॑ ভূয়াস্ম ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবীরাপ ইত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । আপো দেবতাঃ । নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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