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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - अनुष्टुप्,प्राजापत्या अनुष्टुप्,स्वराट् साम्नी अनुष्टुप्,भूरिक् आर्ची गायत्री,भूरिक् साम्नी अनुष्टुप् स्वरः - षड्जः, गान्धारः
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    मि॒त्रावरु॑णाभ्यां त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णा॒मीन्द्रा॑य त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णा॒मीन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णा॒मीन्द्रा॒वरु॑णाभ्यां त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णा॒मीन्द्रा॒बृह॒स्पति॑भ्यां त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णा॒मीन्द्रा॒विष्णु॑भ्यां त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णामि॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रावरु॑णाभ्याम्। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इ॒न्द्रा॒ग्निभ्या॒मिती॑न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म्। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॒वरु॑णाभ्याम्। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॒बृह॒स्पति॑भ्या॒मितीन्द्राबृह॒स्पति॑ऽभ्याम्। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒। इन्द्रा॒विष्णु॑भ्या॒मितीन्द्रा॒विष्णुभ्या॒मितीन्द्रा॒विष्णु॑ऽभ्याम्। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रावरुणाभ्यान्त्वा देवाव्यं देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामीन्द्राय त्वा देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामीन्द्राग्निभ्यान्त्वा देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामीन्द्रावरुणाभ्यान्त्वा देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामीन्द्राबृहस्पतिभ्यान्त्वा देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामीन्द्राविष्णुभ्यान्त्वा देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रावरुणाभ्याम्। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि। इन्द्राय। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि। इन्द्राग्निभ्यामितीन्द्राग्निऽभ्याम्। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि। इन्द्रावरुणाभ्याम्। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि। इन्द्राबृहस्पतिभ्यामितीन्द्रा- बृहस्पतिऽभ्याम्। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि। इन्द्राविष्णुभ्यामितीन्द्राविष्णुभ्यामितीन्द्रा- विष्णुऽभ्याम्। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 23
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    भावार्थ - सर्व शास्त्रांचा प्रसार होण्यासाठी प्रजेने सर्व विद्येत प्रवीण व अखंड ब्रह्मचारी पुरुषाला राजा करावे व राजाने अत्यंत प्रेमाने सर्व शास्त्रांचा प्रसार, प्रसार करावा.

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