अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 43/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः, ब्रह्म
छन्दः - त्र्यवसाना शङ्कुमती पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। च॒न्द्रो मा॒ तत्र॑ नयतु॒ मन॑श्च॒न्द्रो द॑धातु मे। च॒न्द्राय॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑। ब्र॒ह्म॒ऽविदः॑। यान्ति॑। दी॒क्षया॑। तप॑सा। स॒ह। च॒न्द्रः। मा॒। तत्र॑। न॒य॒तु॒। मनः॑। च॒न्द्रः। द॒धा॒तु॒। मे॒ ॥ च॒न्द्राय॑। स्वाहा॑ ॥४३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। चन्द्रो मा तत्र नयतु मनश्चन्द्रो दधातु मे। चन्द्राय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। ब्रह्मऽविदः। यान्ति। दीक्षया। तपसा। सह। चन्द्रः। मा। तत्र। नयतु। मनः। चन्द्रः। दधातु। मे ॥ चन्द्राय। स्वाहा ॥४३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 43; मन्त्र » 4
Translation -
Whither the realizers of the Divine Supreme go with consecration and austerity, may the moon lead me thither; may the moon grant me (a pleasant) mind. I dedicate it to the moon.