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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 32
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - वायु: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    श॒तं दा॒से ब॑ल्बू॒थे विप्र॒स्तरु॑क्ष॒ आ द॑दे । ते ते॑ वायवि॒मे जना॒ मद॒न्तीन्द्र॑गोपा॒ मद॑न्ति दे॒वगो॑पाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । दा॒से । ब॒ल्बू॒थे । विप्रः॑ । तरु॑क्षे । आ । द॒दे॒ । ते । ते॒ । वा॒यो॒ इति॑ । इ॒मे । जनाः॑ । मद॑न्ति । इन्द्र॑ऽगोपाः । मद॑न्ति । दे॒वऽगो॑पाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं दासे बल्बूथे विप्रस्तरुक्ष आ ददे । ते ते वायविमे जना मदन्तीन्द्रगोपा मदन्ति देवगोपाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम् । दासे । बल्बूथे । विप्रः । तरुक्षे । आ । ददे । ते । ते । वायो इति । इमे । जनाः । मदन्ति । इन्द्रऽगोपाः । मदन्ति । देवऽगोपाः ॥ ८.४६.३२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 32
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (बल्बूथे) बलवान् के (शतं दासे) सैकड़ों पदार्थों के वैभव दाता होने पर (तरुक्षः) तारक (विप्रः) बुद्धिमान् उस वैभव को (आ, ददे) स्वीकार करता है। हे (वायो) नियन्ता! (ते ते) वे (इमे) और ये सब (ते जनाः) तेरे उपासक (इन्द्रगोपाः) ऐश्वर्यशाली द्वारा रक्षा होकर (मन्दन्ति) प्रसन्न रहते हैं और (देवगोपाः) विद्वानों के द्वारा सुरक्षित हुए (मदन्ति) आनन्द भोगते हैं॥३२॥

    भावार्थ - प्रभु की प्रेरणा से राजा आदि ऐश्वर्यशाली वीरों से धनादि ऐश्वर्य उपलब्ध करने वाले साधक सब प्रकार से सुरक्षित रहते हैं॥३२॥

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