ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 53/ मन्त्र 5
इन्द्र॒ नेदी॑य॒ एदि॑हि मि॒तमे॑धाभिरू॒तिभि॑: । आ शं॑तम॒ शंत॑माभिर॒भिष्टि॑भि॒रा स्वा॑पे स्वा॒पिभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । नेदी॑यः । आ । इत् । इ॒हि॒ । मि॒तऽमे॑धाभिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । आ । श॒म्ऽत॒म॒ । शम्ऽत॑माभिः । अ॒भिष्टि॑ऽभिः । आ । सु॒ऽआ॒पे॒ । स्वा॒पिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र नेदीय एदिहि मितमेधाभिरूतिभि: । आ शंतम शंतमाभिरभिष्टिभिरा स्वापे स्वापिभि: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । नेदीयः । आ । इत् । इहि । मितऽमेधाभिः । ऊतिऽभिः । आ । शम्ऽतम । शम्ऽतमाभिः । अभिष्टिऽभिः । आ । सुऽआपे । स्वापिऽभिः ॥ ८.५३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 53; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
पदार्थ -
हे (इन्द्र) प्रभो! (मितमेधाभिः) अनुग्रहबुद्धियों सहित (ऊतिभिः) रक्षणादि क्रियाओं सहित (नेदीयः) समीपतर (इत्) ही (आ इहि) आइये। हे (शन्तम) अधिकतम कल्याण करने वाले प्रभु! (शन्तमाभिः) अधिकतम कल्याण-कर (अभिष्टिभिः) हमारी कामनाएं पूर्ण करते हुए आइये; हे (स्वापे!) सुष्ठुतया सुखप्राप्त परमात्मा! आप (स्वापिभिः) सुष्ठुतया सुखों को प्राप्त कराने वाली शक्तियों को लेकर आइये॥५॥
भावार्थ - परमेश्वर का गुणगान साधक को इस प्रयोजन से करना चाहिये कि उसके गुण अपने अन्तःकरण में धार कर वह परमप्रभु के अनुग्रह का पात्र बने; और उसे अधिक से अधिक कल्याण की प्राप्ति हो। उसकी कल्याणकारिणी इच्छाएं अधिकाधिक पूर्ण हों और इस भाँति वह सुखी हो॥५॥
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