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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 84 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 84/ मन्त्र 9
    ऋषिः - उशना काव्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    क्षेति॒ क्षेमे॑भिः सा॒धुभि॒र्नकि॒र्यं घ्नन्ति॒ हन्ति॒ यः । अग्ने॑ सु॒वीर॑ एधते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्षेति॑ । क्षेमे॑भिः । सा॒धुऽभिः॑ । नकिः॑ । यम् । घ्नन्ति॑ । हन्ति॑ । यः । अग्ने॑ । सु॒ऽवीरः॑ । ए॒ध॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षेति क्षेमेभिः साधुभिर्नकिर्यं घ्नन्ति हन्ति यः । अग्ने सुवीर एधते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्षेति । क्षेमेभिः । साधुऽभिः । नकिः । यम् । घ्नन्ति । हन्ति । यः । अग्ने । सुऽवीरः । एधते ॥ ८.८४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 84; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    जो उपासक (साधुभिः) लक्ष्यसाधक (क्षेमैः) अर्जित कल्याणों सहित (क्षेति) निवास करता है--उनको बनाए रखता हुआ [अन्तिम समय की प्रतीक्षा करता है]; (यम्) जिसे (न किः घ्नन्ति) कोई शत्रुभूत भावना हानि नहीं पहुंचा पाती, अपितु (यः) जो स्वयं दुर्भावनाओं को (हन्ति) अपने से दूर रखता है; हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप प्रभो! यह (सुवीरः) वीर्यवान् पुरुष (एधते) धनधान्य, पुत्र-पुत्रादि से समृद्धि पाता है।॥९॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में बताया गया है कि उपासक अन्त में ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जब वह बहुत-सी कल्याणकारी समृद्धि पा लेता है; उस अवस्था में उसे चाहिये कि वह अर्जित को बनाये रखे--यदि यह बना रहेगा तो फिर उससे दुर्भावनाएं दूर रहेंगी और वह सर्व प्रकार उन्नति करेगा॥९॥ अष्टम मण्डल में चौरासीवाँ सूक्त व छठा वर्ग समाप्त॥

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