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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 85/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कृष्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ मे॒ हवं॑ नास॒त्याश्वि॑ना॒ गच्छ॑तं यु॒वम् । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मे॒ । हव॑म् । ना॒स॒त्या॒ । अश्वि॑ना । गच्छ॑तम् । यु॒वम् । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मे हवं नासत्याश्विना गच्छतं युवम् । मध्व: सोमस्य पीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मे । हवम् । नासत्या । अश्विना । गच्छतम् । युवम् । मध्वः । सोमस्य । पीतये ॥ ८.८५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 85; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (नासत्या) कभी अपने कर्त्तव्य से न चूकने वाले (युवम्) दोनों (अश्विनौ) शक्तिसम्पन्न प्राण व अपान (मध्वः) माधुर्य आदि गुणयुक्त (सोमस्य) वीर्य शक्ति को मुझ उपासक के (पीतये) [शरीर में] खपाने हेतु (मे) मेरे (हवम्) दान-आदान पूर्वक किये जा रहे जीवनयापन रूपी यज्ञ में (आ गच्छतम्) आकर सम्मिलित हों॥१॥

    भावार्थ - अश्विनी देवताओं के वैद्य हैं। उपासक का जीवनयापन भी यज्ञ ही है। इस प्रक्रिया में वह कई प्रकार से दान करता है और ग्रहण करता है। शरीर, मन आदि जीवनयापन के साधन अपने कार्य से कभी चूकें नहीं, अस्वस्थ न हों, अतः प्राण व अपान को अचूक बनाना जरूरी है और इसके लिये आवश्यक है कि वीर्यशक्ति सदैव इन साधनों में ही खपती रहे। 'प्राण' आदान व 'अपान' दान या विसर्जन क्रिया का प्रतीक है॥१॥

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