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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 85/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कृष्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यं वां॒ कृष्णो॑ अश्विना॒ हव॑ते वाजिनीवसू । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । वा॒म् । कृष्णः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हव॑ते । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं वां कृष्णो अश्विना हवते वाजिनीवसू । मध्व: सोमस्य पीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । वाम् । कृष्णः । अश्विना । हवते । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । मध्वः । सोमस्य । पीतये ॥ ८.८५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 85; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (अयम्) यह (कृष्णः) [दुर्भावना आदि शत्रुओं के] उखाड़ने में रत उपासक, (मध्वः) मधुर आदि गुणयुक्त (सोमस्य) [शारीरिक एवं आत्मिक] बल को (पीतये) प्राप्त कराने हेतु (वाजिनीवसू) बल व वेगवती क्रियाशक्ति के आश्रयभूत (वा) तुम दोनों (अश्विनौ) प्राण तथा अपान को (हवते) बुलाता है॥३॥

    भावार्थ - जो उपासक स्व मन की दुर्भावनाएं मिटाना और परिणामस्वरूप शारीरिक, मानसिक व आत्मिक बल प्राप्त करना चाहे वह प्राण व अपान को नियन्त्रण में करे। प्राण व अपान शरीर को बल तथा स्फूर्ति देते हैं॥३॥

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