ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 89/ मन्त्र 4
अ॒भि प्र भ॑र धृष॒ता धृ॑षन्मन॒: श्रव॑श्चित्ते असद्बृ॒हत् । अर्ष॒न्त्वापो॒ जव॑सा॒ वि मा॒तरो॒ हनो॑ वृ॒त्रं जया॒ स्व॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र । भ॒र॒ । धृ॒ष॒ता । धृ॒ष॒त्ऽम॒नः॒ । श्रवः॑ । चि॒त् । ते॒ । अ॒स॒त् । बृ॒हत् । अर्ष॑न्तु । आपः॑ । जव॑सा । वि । मा॒तरः॑ । हनः॑ । वृ॒त्रम् । जय॑ । स्वः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्र भर धृषता धृषन्मन: श्रवश्चित्ते असद्बृहत् । अर्षन्त्वापो जवसा वि मातरो हनो वृत्रं जया स्व: ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । प्र । भर । धृषता । धृषत्ऽमनः । श्रवः । चित् । ते । असत् । बृहत् । अर्षन्तु । आपः । जवसा । वि । मातरः । हनः । वृत्रम् । जय । स्वः ॥ ८.८९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 89; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
पदार्थ -
हे (धृषन्मनः) दृढ़चेता उपासक! (ते) तेरा (श्रवः) गुणकीर्तन, विद्याश्रवण, भोग [अन्न] आदि सब कुछ (बृहत्) विशाल (असत्) हो गया है; (धृषता) दृढ़ निश्चय द्वारा (अभि प्रभर) इसे अनुकूलता से धारण कर। (मातरः) मान्य के कारण (आपः) प्राण (जवसा) वेगपूर्वक (वि, अर्षन्तु) तेरे विविध अंगों में प्राप्त हों; इस भाँति दृढाङ्ग होकर (वृत्रम् ) सुगुणों का आगमन रोकने वाली रुकावट को (हनः) नष्ट कर; (स्वः) स्वर्गलोक, सुखावस्था को (जय) जय कर॥४॥
भावार्थ - उपासक पहले सम्यक् रूप से शास्त्र अध्ययन तथा श्रवण द्वारा ज्ञानधन की उपलब्धि करे; पदार्थविज्ञान के द्वारा उत्तमोत्तम योगों को उपलब्ध करे; और इस सारे ऐश्वर्य को दृढ़चित्त से स्व अनुकूल बनाये रखे। ऐसा करने पर वह गुणधारण करने में आने वाले सभी अवरोधों को दूर कर सकेगा और अन्त में दिव्य सुखमयी अवस्था पा सकेगा॥४॥
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