ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
आ त्वा॑ शु॒क्रा अ॑चुच्यवुः सु॒तास॑ इन्द्र गिर्वणः । पिबा॒ त्व१॒॑स्यान्ध॑स॒ इन्द्र॒ विश्वा॑सु ते हि॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । शु॒क्राः । अ॒चु॒च्य॒वुः॒ । सु॒तासः॑ । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । पिब॑ । तु । अ॒स्य । अन्ध॑सः । इन्द्र॑ । विश्वा॑सु । ते॒ । हि॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा शुक्रा अचुच्यवुः सुतास इन्द्र गिर्वणः । पिबा त्व१स्यान्धस इन्द्र विश्वासु ते हितम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । शुक्राः । अचुच्यवुः । सुतासः । इन्द्र । गिर्वणः । पिब । तु । अस्य । अन्धसः । इन्द्र । विश्वासु । ते । हितम् ॥ ८.९५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 95; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
पदार्थ -
हे (गिर्वणः) प्रशंसनीय आत्मन्! (सुतासः) सुसम्पादित पदार्थ विज्ञान (शुक्राः) जो निर्दोष होने से अतीव शोभित हैं वे (त्वा) तुझ मेरे आत्मा की ओर (आ अचुच्यवुः) चारों ओर से क्रमशः प्राप्त हुए हैं। हे (इन्द्र) ऐश्वर्य प्राप्ति के अभिलाषी मेरे आत्मन्! (विश्वासु) सभी ओर (ते हितम्) तेरे लिये प्रभु द्वारा स्थापित (अस्य) इस (अन्धसः) पदार्थविज्ञान रूपी रस को (नु) शीघ्र ही (पिब) पी॥२॥
भावार्थ - परमात्मा की सृष्टि का सम्यक् ज्ञान ग्रहण करना एक प्रकार से सोम सम्पादन है; इन्द्रियों के द्वारा यह सब आत्मा के हितार्थ किया जाता है। हर जीव इस प्राप्तव्य रस को शीघ्रातिशीघ्र ग्रहण करे॥२॥
इस भाष्य को एडिट करें