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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्रा॑य॒ साम॑ गायत॒ विप्रा॑य बृह॒ते बृ॒हत् । ध॒र्म॒कृते॑ विप॒श्चिते॑ पन॒स्यवे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑य । साम॑ । गा॒य॒त॒ । विप्रा॑य । बृ॒ह॒ते । बृ॒हत् । ध॒र्म॒ऽकृते॑ । वि॒पः॒ऽचिते॑ । प॒न॒स्यवे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय साम गायत विप्राय बृहते बृहत् । धर्मकृते विपश्चिते पनस्यवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय । साम । गायत । विप्राय । बृहते । बृहत् । धर्मऽकृते । विपःऽचिते । पनस्यवे ॥ ८.९८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    हे स्तोताजनो! तुम उस (विप्राय) विविधरूप से हमें परिचित कर रहे, (बृहते) विशाल, (धर्मकृते) नियमों के निर्माता, (विपश्चिते) विविध ज्ञान तथा कर्मशक्तियों के पालक, (पनस्यवे) स्तुतियोग्य (इन्द्राय) प्रभु के लिये (बृहत् साम) बृहत्साम को (गायत) गाओ॥१॥

    भावार्थ - प्रभु हमें विभिन्न पदार्थ दे परिपूर्ण किये हुए है; वह उन शाश्वत नियमों तथा सिद्धान्तों का निर्माता है कि जिनके आधार पर यह संसार टिका है। उसका सामगायन से विस्तृत गान या वर्णन तो हो; जिससे उसका सन्देश प्राप्त होता है॥१॥

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