अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
इ॒मं ब॑ध्नामि ते म॒णिं दी॑र्घायु॒त्वाय॒ तेज॑से। द॒र्भं स॑पत्न॒दम्भ॑नं द्विष॒तस्तप॑नं हृ॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम्। ब॒ध्ना॒मि॒। ते॒। म॒णिम्। दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑। तेज॑से। द॒र्भम्। स॒प॒त्न॒ऽदम्भ॑नम्। द्वि॒ष॒तः। तप॑नम्। हृ॒दः ॥२८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं बध्नामि ते मणिं दीर्घायुत्वाय तेजसे। दर्भं सपत्नदम्भनं द्विषतस्तपनं हृदः ॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। बध्नामि। ते। मणिम्। दीर्घायुऽत्वाय। तेजसे। दर्भम्। सपत्नऽदम्भनम्। द्विषतः। तपनम्। हृदः ॥२८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
सूचना -
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः - दर्भ एक घास औषध विशेष भी है, जो वात, पित्त, कफ त्रिदोष आदि रोगनाश करता है ॥ इस मन्त्र का मिलान करो-अ०६।४३।१२॥१−(इमम्) प्रसिद्धम् (बध्नामि) नियोजयामि (ते) तव (मणिम्) अ०१।२९।१। मण कूजे-इन्। रत्नम्। प्रशंसनीयम् (दीर्घायुत्वाय) चिरजीवनाय (तेजसे) प्रतापाय (दर्भम्) अ०६।४३।१। दॄदलिभ्यां भः। उ०३।१५१। दॄ विदारणे-भ। शत्रुविदारकं सेनापतिम्। कुशादितृणविशेषम् (सपत्नदम्भनम्) शत्रूणां हिंसकम् (द्विषतः) विरोधिनः पुरुषस्य (तपनम्) तापकम् (हृदः) हृदयस्य ॥
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