अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
भि॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑न्मे भि॒न्द्धि मे॑ पृतनाय॒तः। भि॒न्द्धि मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॑ भि॒न्द्धि मे॑ द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठभि॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। भि॒न्द्धि। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। भि॒न्द्धि। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। भि॒न्द्धि। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
भिन्द्धि दर्भ सपत्नान्मे भिन्द्धि मे पृतनायतः। भिन्द्धि मे सर्वान्दुर्हार्दो भिन्द्धि मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठभिन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। भिन्द्धि। मे। पृतनाऽयतः। भिन्द्धि। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दः। भिन्द्धि। मे। द्विषतः। मणे ॥२८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
सूचना -
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः - ५−(भिन्द्धि) विदारय (दर्भ) म०१। हे शत्रुविदारक सेनापते (सपत्नान्) शत्रून् (मे) मम (भिन्द्धि) (मे) मह्यम् (पृतनायतः) अ०१।२१।२। सुप आत्मनः क्यच्। पा०३।१।८। पृतना-क्यच्, आकारलोपाभावश्छान्दसः। ततः शतृ। पृतन्यतः। पृतनां सेनामात्मन इच्छतः शत्रून् (भिन्द्धि) (मे) मम (सर्वान्) (दुर्हार्दः) म०२। दुष्टहृदयान् (भिन्द्धि) (मे) मम (द्विषतः) विरोधकान् (मणे) हे प्रशंसनीय ॥
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