अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 13
सूक्त - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
पु॒ष्टिर॑सि पु॒ष्ट्या मा॒ सम॑ङ्ग्धि गृहमे॒धी गृ॒हप॑तिं मा कृणु। औदु॑म्बरः॒ स त्वम॒स्मासु॑ धेहि र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं॒ नि य॑च्छ रा॒यस्पोषा॑य॒ प्रति॑ मुञ्चे अ॒हं त्वाम् ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒ष्टिः। अ॒सि॒। पु॒ष्ट्या। मा॒। सम्। अ॒ङ्ग्धि॒। गृ॒ह॒ऽमे॒धी। गृ॒हऽप॑तिम्। मा॒। कृ॒णु॒। औदु॑म्बरः। सः। त्वम्। अ॒स्मासु॑। धे॒हि॒। र॒यिम्। च॒। नः॒। सर्व॑ऽवीरम्। नि। य॒च्छ॒। रा॒यः। पोषा॑य। प्रति॑। मु॒ञ्चे॒। अ॒हम्। त्वाम् ॥३१.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
पुष्टिरसि पुष्ट्या मा समङ्ग्धि गृहमेधी गृहपतिं मा कृणु। औदुम्बरः स त्वमस्मासु धेहि रयिं च नः सर्ववीरं नि यच्छ रायस्पोषाय प्रति मुञ्चे अहं त्वाम् ॥
स्वर रहित पद पाठपुष्टिः। असि। पुष्ट्या। मा। सम्। अङ्ग्धि। गृहऽमेधी। गृहऽपतिम्। मा। कृणु। औदुम्बरः। सः। त्वम्। अस्मासु। धेहि। रयिम्। च। नः। सर्वऽवीरम्। नि। यच्छ। रायः। पोषाय। प्रति। मुञ्चे। अहम्। त्वाम् ॥३१.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 13
सूचना -
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः - १३−(पुष्टिः) वृद्धिरूपः (असि) (पुष्ट्या) पोषेण (मा) माम् (सम् अङ्ग्धि) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-लोट्। सम्यग् आक्तं कुरु। संयुक्तं कुरु (गृहमेधी) अ०८।१०।३। गृह+मेधृ वधमेधासङ्गमेषु-णिनि गृहाणि गृहकार्याणि मेधति जानातीति सः (गृहपतिम्) गृहस्वामिनम् (मा) माम् (कृणु) कुरु (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (सः) (त्वम्) (अस्मासु) (धेहि) धारय (रयिम्) धनम् (च) (नः) अस्मभ्यम् (सर्ववीरम्) सर्वे वीरा यस्मात् तादृशम् (नि यच्छ) नियतं कुरु (रायः) धनस्य (पोषाय) वर्धनाय (प्रति मुञ्चे) स्वीकरोमि (अहम्) (त्वाम्) परमात्मानम् ॥
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