अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 13
ऋषिः - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
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पु॒ष्टिर॑सि पु॒ष्ट्या मा॒ सम॑ङ्ग्धि गृहमे॒धी गृ॒हप॑तिं मा कृणु। औदु॑म्बरः॒ स त्वम॒स्मासु॑ धेहि र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं॒ नि य॑च्छ रा॒यस्पोषा॑य॒ प्रति॑ मुञ्चे अ॒हं त्वाम् ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒ष्टिः। अ॒सि॒। पु॒ष्ट्या। मा॒। सम्। अ॒ङ्ग्धि॒। गृ॒ह॒ऽमे॒धी। गृ॒हऽप॑तिम्। मा॒। कृ॒णु॒। औदु॑म्बरः। सः। त्वम्। अ॒स्मासु॑। धे॒हि॒। र॒यिम्। च॒। नः॒। सर्व॑ऽवीरम्। नि। य॒च्छ॒। रा॒यः। पोषा॑य। प्रति॑। मु॒ञ्चे॒। अ॒हम्। त्वाम् ॥३१.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
पुष्टिरसि पुष्ट्या मा समङ्ग्धि गृहमेधी गृहपतिं मा कृणु। औदुम्बरः स त्वमस्मासु धेहि रयिं च नः सर्ववीरं नि यच्छ रायस्पोषाय प्रति मुञ्चे अहं त्वाम् ॥
स्वर रहित पद पाठपुष्टिः। असि। पुष्ट्या। मा। सम्। अङ्ग्धि। गृहऽमेधी। गृहऽपतिम्। मा। कृणु। औदुम्बरः। सः। त्वम्। अस्मासु। धेहि। रयिम्। च। नः। सर्वऽवीरम्। नि। यच्छ। रायः। पोषाय। प्रति। मुञ्चे। अहम्। त्वाम् ॥३१.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमेश्वर !] तू (पुष्टिः) वृद्धिरूप (असि) है, (वृद्ध्या) वृद्धि के साथ (मा) मुझे (सम् अङ्ग्धि) संयुक्त कर, तू (गृहमेधी) घर के काम समझनेवाला [है], (मा) मुझे (गृहपतिम्) घर का स्वामी (कृणु) कर। (सः) सो (औदुम्बरः) संघटन चाहनेवाला (त्वम्) तू। (अस्मासु) हम लोगों के बीच (नः) हमको (सर्ववीरम्) सबको वीर रखनेवाला (रयिम्) धन (धेहि) दे, (च) और (नि यच्छ) दृढ़ कर, (अहम्) मैं (त्वाम्) तुझको (रायः) धन की (पोषाय) वृद्धि के लिये (प्रति मुञ्चे) स्वीकार करता हूँ ॥१३॥
भावार्थ
परमात्मा को सर्वभण्डार और सर्वशक्तिमान् समझकर मनुष्य अपनी वृद्धि के लिये प्रवृत्ति करते रहें ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(पुष्टिः) वृद्धिरूपः (असि) (पुष्ट्या) पोषेण (मा) माम् (सम् अङ्ग्धि) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-लोट्। सम्यग् आक्तं कुरु। संयुक्तं कुरु (गृहमेधी) अ०८।१०।३। गृह+मेधृ वधमेधासङ्गमेषु-णिनि गृहाणि गृहकार्याणि मेधति जानातीति सः (गृहपतिम्) गृहस्वामिनम् (मा) माम् (कृणु) कुरु (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (सः) (त्वम्) (अस्मासु) (धेहि) धारय (रयिम्) धनम् (च) (नः) अस्मभ्यम् (सर्ववीरम्) सर्वे वीरा यस्मात् तादृशम् (नि यच्छ) नियतं कुरु (रायः) धनस्य (पोषाय) वर्धनाय (प्रति मुञ्चे) स्वीकरोमि (अहम्) (त्वाम्) परमात्मानम् ॥
विषय
गृहमेधी
पदार्थ
१. हे औदुम्बर मणे! तू (पुष्टिः असि) = हमारा पोषण करनेवाली है। तू (मा) = मुझे (पुष्ट्या समङ्ग्धि) = पुष्टि से युक्त कर। तू गृहमेधी-इस शरीररूप गृह के साथ मेलवाली है। मा-मुझे गृहपतिं कृणु-इस शरीररूप गृह का रक्षक बना। सुरक्षित वीर्य ही तो इस शरीर का रक्षण करता है। २. (औदुम्बर:) = तू सब पापों व रोगों से हमें ऊपर उभारनेवाला है। (सः) = वह (त्वम्) = तू (अस्मासु) = हममें (रयिं धेहि) = रयि का धारण कर (च) = और (नः) = हमारे लिए (सर्ववीरम्) = सब वीर सन्तानोंवाली रयि को नियच्छ-दे। सुरक्षित वीर्य हमें वीर सन्तानों को प्राप्त कराता है और हमें रयि का ईश बनाता है। हे औदुम्बर! (अहम्) = मैं (त्वाम्) = तुझे (रायस्पोषाय) = धन के पोषण के लिए (प्रतिमुञ्चे) = धारण करता हूँ। वीर्य का संयम करने पर शक्तिशाली इन्द्रियोंवाला होकर मैं धन का सर्जन करनेवाला होता हूँ।
भावार्थ
सुरक्षित वीर्य मुझे पुष्ट करता है-मेरे शरीरगृह का रक्षण करता है-हमें रयि का ईश बनाता है।
भाषार्थ
हे वनाधिपति! (पुष्टिः) पुष्टि का मूर्तरूप (असि) तू है, (पुष्ट्या) पोषक पदार्थों के कारण (मा) मुझ सम्राट् को (मन्त्र ७) (सम् अङ्ग्धि) सम्यक्-प्रकार से अभिव्यक्त अर्थात् प्रसिद्ध कर दे। (गृहमेधी) तू राष्ट्रगृह का यष्टा है, (मा) मुझ सम्राट् को (गृहपतिम्) राष्ट्रगृह का रक्षक तथा तथा पालक (कृणु) कर दे। (त्वम्) तू (औदुम्बरः) वनाधिपति है (सः) वह तू (अस्मासु) हम अधिकारी जनों और प्रजाजनों में (रयिम्) सम्पत्तियाँ (धेहि) स्थापित कर। (च) और (नः) हमें (सर्ववीरम्) सबको बनानेवाली सम्पत्तियाँ (नि यच्छ) सदा प्रदान कर। (अहम्) मैं सम्राट् (रायस्पोषाय) राष्ट्र की सम्पत्तियों के परिपोषण के लिए, हे वनाधिपति! (त्वाम्) तुझे (प्रतिमुञ्चे) स्वीकार करता हूँ।
विषय
औदुम्बर मणि के रूप में अन्नाध्यक्ष, पुष्टपति का वर्णन।
भावार्थ
तू (पुष्टिः असि) साक्षात् पुष्टिमय है (मा) मुझको (पुष्ट्या) पुष्टि, पोषणकारी अन्न आदि की समृद्धि से (सम् अङ्धि) युक्त कर। तू स्वयं (गृहमेधी) गृहमेधी, गृह को पुष्ट करने वाला है (मा) मुझको (गृहपतिं कृणु) गृह का स्वामी बना। (त्वम्) तू (सः) वही (औदुम्बरः) बहुतों को अन्न आदि से पुष्ट करने में समर्थ है। (त्वम्) तू (अस्मासु) हममें भी बहुतों का पालन और भरण पोषण के सामर्थ्य को (धेहि) स्थापन कर और (नः) हमें (सर्ववीरं रयिम् च) समस्त वीर्यों वीर पुरुषों से युक्त ऐश्वर्य (नियच्छ) प्रदान कर। (अहम्) मैं (त्वाम्) तुझको (रायस्पोषाय) धन ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये (प्रति मुञ्चे) धारण करता हूं, अपने राष्ट्र में नियुक्त करता हूं, तुझे स्वीकार करता हूं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘समिन्धि’ इति क्वचित्। ‘समग्धि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिकामः सविता ऋषिः। मन्त्रोक्त उदुम्बरमणिर्देवता। ५, १२ त्रिष्टुभौ। ६ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। ११, १३ पञ्चपदे शक्वर्य्यौ। १४ विराड् आस्तारपंक्तिः। शेषा अनुष्टुभः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Audumbara Mani
Meaning
You are nourishment and growth itself. Invest me with nourishment and growth. You are ideal master of the home dedicated to yajna and the family. Make me a good householder. You are Audumbara, treasure of wide virtues, wealth and power of life. Give us wealth all worthy of the brave. I hold on to you for peace, prosperity and progress.
Translation
You are power; anoint me with power. You are householder; make me the master of house. O udumbara blessing, as such, may you bestow riches on us and bless us with all brave sons. For plenty of riches, I accept (wear) you.
Translation
This Udumbar is nourishing, let it enrich with nourishment, it always flourish near houses, let it make me house-holder; this is known as an Udumbar, that which highly feeds up, let it give fostering power in to us; let it bestow us the wealth endowed with heroes; I, the medical man accept this for the increase of healing wealth.
Translation
Thou art the embodiment of nourishment, cover me up with nourishment. Thou art enhancer of the peace of domestic life, mayst thou make me the lord of the household. O Audumber, letst the self-same thou invest with riches and completely surround us brave people. I instal thee for riches and prosperity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(पुष्टिः) वृद्धिरूपः (असि) (पुष्ट्या) पोषेण (मा) माम् (सम् अङ्ग्धि) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु-लोट्। सम्यग् आक्तं कुरु। संयुक्तं कुरु (गृहमेधी) अ०८।१०।३। गृह+मेधृ वधमेधासङ्गमेषु-णिनि गृहाणि गृहकार्याणि मेधति जानातीति सः (गृहपतिम्) गृहस्वामिनम् (मा) माम् (कृणु) कुरु (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (सः) (त्वम्) (अस्मासु) (धेहि) धारय (रयिम्) धनम् (च) (नः) अस्मभ्यम् (सर्ववीरम्) सर्वे वीरा यस्मात् तादृशम् (नि यच्छ) नियतं कुरु (रायः) धनस्य (पोषाय) वर्धनाय (प्रति मुञ्चे) स्वीकरोमि (अहम्) (त्वाम्) परमात्मानम् ॥
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