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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
    ऋषिः - सविता देवता - औदुम्बरमणिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
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    ग्रा॑म॒णीर॑सि ग्राम॒णीरु॒त्थाया॒भिषि॑क्तो॒ऽभि मा॑ सिञ्च॒ वर्च॑सा। तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धार॒याधि॑ र॒यिर॑सि र॒यिं मे॑ धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्रा॒म॒ऽनीः। अ॒सि॒। ग्रा॒म॒ऽनीः। उ॒त्थाय॑। अ॒भिऽसि॑क्तः। अ॒भि। मा॒। सि॒ञ्च॒। वर्च॑सा। तेजः॑। अ॒सि॒। तेजः॑। मयि॑। धा॒र॒य॒। अधि॑। र॒यिः। अ॒सि॒। र॒यिम्। मे॒। धे॒हि॒ ॥३१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्रामणीरसि ग्रामणीरुत्थायाभिषिक्तोऽभि मा सिञ्च वर्चसा। तेजोऽसि तेजो मयि धारयाधि रयिरसि रयिं मे धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्रामऽनीः। असि। ग्रामऽनीः। उत्थाय। अभिऽसिक्तः। अभि। मा। सिञ्च। वर्चसा। तेजः। असि। तेजः। मयि। धारय। अधि। रयिः। असि। रयिम्। मे। धेहि ॥३१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] तू (ग्रामणीः) समूहों का नेता (असि) है, (उत्थाय) खड़ा होकर तू (ग्रामणीः) समूहों का नेता [है], (अभिषिक्तः) अभिषेक [राज्यतिलक] किया हुआ तू (मा) मुझे (वर्चसा) तेज के साथ (अभिषिञ्च) अभिषिक्त कर। (तेजः) तू तेजःस्वरूप (असि) है, (मयि) मुझमें (तेजः) तेज (धारय) धारण कर, (रयिः) तू धनरूप (असि) है (मे) मेरे लिये (रयिम्) धन (अधि) अधिकायी से (धेहि) स्थापित कर ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपने ऐश्वर्य से सब समूहों का राजा महाराजा है। इसी प्रकार सब मनुष्य धर्म के साथ प्रतापी और धनी होकर सुखी होवें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(ग्रामणीः) समूहानां नेता (असि) (ग्रामणीः) (उत्थाय) उद्गत्य (अभिषिक्तः) अभिषेकं प्राप्तः (मा) माम् (अभिषिञ्च) अभिषिक्तं कुरु (वर्चसा) तेजसा (तेजः) तेजोरूपः (असि) (तेजः) प्रकाशम् (मयि) (धारय) स्थापय (अधि) आधिक्ये (रयिः) धनरूपः (असि) (रयिम्) धनम् (मे) मह्यम् (धेहि) धारय ॥

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    विषय

    ग्रामणी:

    पदार्थ

    १. हे औदुम्बर मणे! तु (ग्रामणी: असि) = इन्द्रियासमूह का नेतृत्व करनेवाली है-सब इन्द्रियों को अपने कार्य में प्रवृत्त करने के लिए तू उन्हें शक्तिशाली बनाती है। तू सचमुच (ग्रामणी: उत्थाय) = शरीर में (ऊर्ध्व:) = गतिवाली होकर (अभिषिक्ता) = शरीर में चारों ओर सिक्त हुई-हुई (ग्रामणी:) = इस इन्द्रिय-समूह का प्रणयन करती है। तू (मा) = मुझे (वर्चसा) = वर्चस् से-प्राणशक्ति से (अभिसिञ्च) = सर्वत: सिक्त कर। २. (तु) = तो (तेजः असि) = तेज-ही-तेज है। (मयि) = मुझमें (तेज:) = तेजस्विता को (धारय) = धारण कर । (रयिः असि) = तू ही वास्तविक धन है। (मे) = मुझमें (रयिम्) = इस ऐश्वर्य को अधि धेहि आधिक्येन स्थापित कर।

    भावार्थ

    सुरक्षित वीर्य इन्द्रियसमूह का अपने-अपने कार्य में प्रवर्तक है। यह हमारे अन्दर तेजस्विता का धारण करता है-हमें रयीश [रयि+ईश] बनाता है।

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    भाषार्थ

    (ग्रामणीः असि) तू ग्रामों का नेता है, (ग्रामणीः) ग्रामों का नेता तू (अभिषिक्तः) ग्रामों के नेतृत्व के लिए अभिषिक्त किया गया है। तू (उत्त्थाय) उद्यम करके (वर्चसा) अन्नों द्वारा (मा) मुझे (अभि सिञ्च) सींच दे, मुझ पर अन्नों की वर्षा कर। (तेजः असि) तू तेजस्वी है, (मयि) मुझ में तू (तेजः) तेज (अधि धारय) स्थापित कर। (रयिः असि) तू सम्पत्तियों का स्वामी है, (मयि) मुझमें तू (रयिम्) सम्पत्तियाँ (अधि धेहि) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    [ग्रामणीः= औदुम्बर-वनाधिपति को ग्रामों का भी नेता अर्थात् अधिपति नियत करना चाहिए। क्योंकि वनों तथा अन्नादि पुष्ट पदार्थों का सम्बन्ध ग्रामों के साथ होता है। अभिषिक्तः= प्रत्येक राज्याधिकारी को अधिकार सौंपते समय उसका अभिषेक होना चाहिए। वर्चसा= अन्नेन (निघं० २.७)। तेजः=तेजस्वी; रयिः=रयिमान। जिस राष्ट्र में अन्न का बाहुल्य हो, वह तेजस्वी अर्थात् प्रभावशाली और रयिमान् बन जाता है। ग्रामाधिपति होने से वनाधिपति “गार्हपत्य” भी है, गृहपतियों का शासक भी है (मन्त्र २)।]

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    विषय

    औदुम्बर मणि के रूप में अन्नाध्यक्ष, पुष्टपति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे शिरोमणि पुरुष ! तू (ग्रामणीः असि) ग्रामका नेता है इस कारण तू (उत्थाय) उच्च पद प्राप्त करके स्वयं (ग्रामणीः) ‘ग्रामणी’ अर्थात् ग्राम के प्रमुख नेतृत्व के पदपर (अभिषिक्तः असि) अभिषेक किया जाता है। तुझे ग्राम के प्रमुख नेता एवं शासक की गद्दी पर बिठलाया जाता है। तू (मा) मुझ प्रजाजन या राजा को भी (वर्चसा सिञ्च) तेज से युक्त कर। तू स्वयं (तेजः असि) तेजस्वरूप है तू (मयि) मुझ में भी (तेजः अधि धारय) तेज धारण करा। तू (रयिः असि) साक्षात् ‘रयि’, धनैश्वर्थमय है। तू (मे) मुझे (रयिं धेहि) ऐश्वर्य प्रदान कर।

    टिप्पणी

    ‘उक्थाया’,‘उक्थ्याया’, ‘उच्छाया’, ‘ग्रामणी छाया’, ‘उच्छ्राय’, इति नाना पाठाः। (च०) धारयाध्यधिरयिरसि इति शं० पा० अनुमितः पाठ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुष्टिकामः सविता ऋषिः। मन्त्रोक्त उदुम्बरमणिर्देवता। ५, १२ त्रिष्टुभौ। ६ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। ११, १३ पञ्चपदे शक्वर्य्यौ। १४ विराड् आस्तारपंक्तिः। शेषा अनुष्टुभः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Audumbara Mani

    Meaning

    You are the leader of villages, leader anointed and consecrated, rise and bless me with lustre. You are all splendour, bless me with splendour. You are supreme ruler of wealth, honour and excellence. Pray invest me too with honour, wealth and excellence.

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    Translation

    You are group-leader. Anointed as group-leader, rising up, may you anoint me with lustre. Majesty you are; maintain majesty in me; riches you are; bestow riches on me.

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    Translation

    This Udumbar is powerful in all the groups of Vanaspatis, it has been raised on height among all the Vanaspaties groups and let it moisten me with splendour. It is a brilliance, let it give me brilliance and it is healing property let it give me power of restoration.

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    Translation

    Thou art a sort of the leading instrument to decide the fate of the village. Being well-established therein, letst thou engulf me with glory and energy. Thou art the root-cause of all splendor, letst thou store all splendour in me. Thou art the lord of all wealth, letst thou store all wealth in me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(ग्रामणीः) समूहानां नेता (असि) (ग्रामणीः) (उत्थाय) उद्गत्य (अभिषिक्तः) अभिषेकं प्राप्तः (मा) माम् (अभिषिञ्च) अभिषिक्तं कुरु (वर्चसा) तेजसा (तेजः) तेजोरूपः (असि) (तेजः) प्रकाशम् (मयि) (धारय) स्थापय (अधि) आधिक्ये (रयिः) धनरूपः (असि) (रयिम्) धनम् (मे) मह्यम् (धेहि) धारय ॥

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