अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
ऋषिः - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
46
दे॒वो म॒णिः स॑पत्न॒हा ध॑न॒सा धन॑सातये। प॒शोरन्न॑स्य भू॒मानं॒ गवां॑ स्फा॒तिं नि य॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः। म॒णिः। स॒प॒त्न॒ऽहाः। ध॒न॒ऽसाः। धन॑ऽसातये। प॒शोः। अन्न॑स्य। भू॒मान॑म्। गवा॑म्। स्फा॒तिम्। नि। य॒च्छ॒तु॒ ॥३१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो मणिः सपत्नहा धनसा धनसातये। पशोरन्नस्य भूमानं गवां स्फातिं नि यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठदेवः। मणिः। सपत्नऽहाः। धनऽसाः। धनऽसातये। पशोः। अन्नस्य। भूमानम्। गवाम्। स्फातिम्। नि। यच्छतु ॥३१.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(देवः) प्रकाशमान (मणिः) प्रशंसनीय, (सपत्नहा) वैरियों का मारनेवाला, (धनसाः) धनों का देनेवाला [परमात्मा] (धनसातये) धनों के दान के लिये−(पशोः) प्राणियों की और (अन्नस्य) अन्न की (भूमानम्) बहुतायत और (गवाम्) गौओं की (स्फातिम्) बढ़ती (नि) नित्य (यच्छतु) देवे ॥८॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मा के अनुग्रह से धनों को प्राप्त करके उत्तम रीति से उठाते हैं, वे सदा उन्नति करते हैं ॥८॥
टिप्पणी
८−(देवः) प्रकाशमयः (मणिः) प्रशंसनीयः (सपत्नहा) शत्रुनाशकः (धनसाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा०३।२।६७। षण सम्भक्तौ-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा०६।४।४१। इत्यात्वम्। धनानां साता दाता (धनसातये) धन+षण संभक्तौ-क्तिन्। जनसनखनां सञ्झलोः। पा०६।४।४२। इत्यात्वम्। धनानां दानाय (पशोः) बहुवचनस्यैकवचनम् पशूनाम् (भूमानम्) बहुत्वम् (गवाम्) धेनूनाम् (स्फातिम्) समृद्धिम् (नि) नित्यम् (यच्छतु) ददातु ॥
विषय
सपत्नहा-धनसाः
पदार्थ
१. यह औदुम्बरमणि (देव: मणि:) = सब रोगों को जीतने की कामनावाली मणि है [दिव् विजिगीषायाम्], यह (सपत्नाहा) = रोगरूप शत्रुओं का हनन करती है। (धनसा:) = सब जीवन-धनों को प्राप्त कराती है। यह (धनसातये) = इन जीवनधनों की प्राप्ति के लिए हो। २. यह मुझे (पशो:) = गवादि पशुओं, (अन्नस्य) = व्रीहि-यवादि अन्नों तथा विशेषकर (गवां स्फातिम्)=- गौओं की समृद्धि को (नियच्छतु) = प्राप्त कराए। घर गौ से ही तो समृद्ध होता है, स्वर्ग बनता है।
भावार्थ
यह वीर्यमणि देव है-सब रोगों का पराजय करती है, जीवन-धनों को प्राप्त कराती है, वीर्यरक्षक का घर पशुओं व अन्नों से समृद्ध बनाता है।
भाषार्थ
(देवः) दिव्यगुणी (मणिः) राज्यरत्न वनाधिपति (सपत्नहा) वनविरोधी शक्तियों का हनन करता है इस प्रकार (धनसातये) धन प्रदान करनेवाले प्रजाजन के लिए (धनसाः) वह वन्यधन प्रदान करता है। वह (पशोः) पशुओं और (अन्नस्य) अन्नों की (भूमानम्) बहुतायत, तथा (गवाम्) गौवों की (स्फातिम्) वृद्धि (नि यच्छतु) हमें प्रदान करता है।
टिप्पणी
[वनाधिपति वनों पशुओं और अन्नों का अधिकारी होना चाहिए।]
विषय
औदुम्बर मणि के रूप में अन्नाध्यक्ष, पुष्टपति का वर्णन।
भावार्थ
पूर्वोक्त (देवः) सब पदार्थों का प्रदाता (मणि) नर शिरोमणि पुरुष (सपत्नहा) शत्रुओं का नाशकारी होकर और (धनसा) नाना प्रकार के धन ऐश्वर्यों का प्रदाता होकर (धनसातये) हमें ऐश्वर्य लाभ के लिये उपयोगी है। वह हमें (पशोः) पशु (अन्नस्य) अन्न और (गवां) गो आदि नाना पशुओं की (भूमानम्) बहुत भारी (स्फातिम्) वृद्धि को (नियच्छतु) प्रदान करे।
टिप्पणी
(च०) ‘स्फातिर्नि’ इति क्वचित्। (तृ०) ‘यौ मानं’ इति पैप्प०सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिकामः सविता ऋषिः। मन्त्रोक्त उदुम्बरमणिर्देवता। ५, १२ त्रिष्टुभौ। ६ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। ११, १३ पञ्चपदे शक्वर्य्यौ। १४ विराड् आस्तारपंक्तिः। शेषा अनुष्टुभः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Audumbara Mani
Meaning
May the divine, generous jewel, destroyer of adversaries, giver of wealth and honour, we pray, steadily give us abundant growth of animals, food grains, and the growth and development of cows for the progress of the common wealth of humanity.
Translation
May this divine blessing, destroyer of rivals and winner of wealth, grant me abundance of cattle and food as well as multiplication of cows for obtaining wealth.
Translation
Let this nice wondrous Udumbar quelling diseases, distributing the wealth of health be for my attainment of riches. Let it be means of giving me the plenty of cattle’s and corn and the abundance of cows.
Translation
May the same mani, the giver of various things of daily usage, the destroyer of enemies, be the showerer of riches in the distribution thereof. May it grant us plenty of cattle and food-grains along with big herds of cows.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(देवः) प्रकाशमयः (मणिः) प्रशंसनीयः (सपत्नहा) शत्रुनाशकः (धनसाः) जनसनखनक्रमगमो विट्। पा०३।२।६७। षण सम्भक्तौ-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा०६।४।४१। इत्यात्वम्। धनानां साता दाता (धनसातये) धन+षण संभक्तौ-क्तिन्। जनसनखनां सञ्झलोः। पा०६।४।४२। इत्यात्वम्। धनानां दानाय (पशोः) बहुवचनस्यैकवचनम् पशूनाम् (भूमानम्) बहुत्वम् (गवाम्) धेनूनाम् (स्फातिम्) समृद्धिम् (नि) नित्यम् (यच्छतु) ददातु ॥
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