अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
ऋषिः - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - पञ्चपदा शक्वरी
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
57
त्वं म॑णी॒नाम॑धि॒पा वृषा॑सि॒ त्वयि॑ पु॒ष्टं पु॑ष्ट॒पति॑र्जजान। त्वयी॒मे वाजा॒ द्रवि॑णानि॒ सर्वौदु॑म्बरः॒ स त्वम॒स्मत्स॑हस्वा॒रादा॒रादरा॑ति॒मम॑तिं॒ क्षुधं॑ च ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम्। म॒णी॒नाम्। अ॒धि॒ऽपाः। वृषा॑। अ॒सि॒। त्वयि॑। पु॒ष्टम्। पु॒ष्ट॒ऽपतिः॑। ज॒जा॒न॒। त्वयि॑। इ॒मे इति॑। वाजाः॑। द्रवि॑णानि। सर्वा॑। औदु॑म्बरः। सः। त्वम्। अ॒स्मत्। स॒ह॒स्व॒। आ॒रात्। अरा॑तिम्। अम॑तिम्। क्षुध॑म्। च॒ ॥३१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं मणीनामधिपा वृषासि त्वयि पुष्टं पुष्टपतिर्जजान। त्वयीमे वाजा द्रविणानि सर्वौदुम्बरः स त्वमस्मत्सहस्वारादारादरातिममतिं क्षुधं च ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। मणीनाम्। अधिऽपाः। वृषा। असि। त्वयि। पुष्टम्। पुष्टऽपतिः। जजान। त्वयि। इमे इति। वाजाः। द्रविणानि। सर्वा। औदुम्बरः। सः। त्वम्। अस्मत्। सहस्व। आरात्। अरातिम्। अमतिम्। क्षुधम्। च ॥३१.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] (त्वम्) तू (मणीनाम्) मणियों [प्रशंसनीय पदार्थों] का (अधिपाः) बड़ा राजा और (वृषा) बलवान् (असि) है, (त्वयि) तुझमें ही (पुष्टम्) पोषण को (पुष्टपतिः) पोषण के स्वामी [धनी पुरुष] ने (जजान) प्रकट किया है। (त्वयि) तुझमें ही (इमे) यह (वाजाः) अनेक बल और (सर्वा) सब (द्रविणानि) धन हैं, (सः) सो (औदुम्बरः) संघटन चाहनेवाला (त्वम्) तू (अस्मत्) हमसे (अरातिम्) अदानशीलता, (अमतिम्) कुमति (च) और (क्षुधम्) भूख को (आरात्) दूर (सहस्व) हटा ॥११॥
भावार्थ
संसार में जो धनी पुरुष हैं, वे सब परमात्मा का आश्रय लेकर, पुरुषार्थ से धनवान् हुए हैं, यह विचारकर प्रत्येक मनुष्य को धन प्राप्त करके सुपात्र में व्यय, धर्म में सुमति और दुर्भिक्ष आदि के निवारण में दूरदर्शित रखनी चाहिये ॥११॥
टिप्पणी
११−(त्वम्) (मणीनाम्) प्रशंसनीयानां पदार्थानाम् (अधिपाः) महाराजः (वृषा) वीर्यवान् (असि) (त्वयि) (पुष्टम्) पोषणम् (पुष्टपतिः) पोषणस्वामी धनी पुरुषः (जजान) प्रकटीकृतवान् (त्वयि) (इमे) दृश्यमानाः (वाजाः) बलानि (द्रविणानि) धनानि (सर्वा) सर्वाणि (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (सः) तादृशः (त्वम्) (अस्मत्) अस्मत्तः (सहस्व) अभिभव। अपगमय (आरात्) दूरे (अरातिम्) अदानशीलताम् (अमतिम्) कुमतिम् (क्षुधम्) बुभुक्षाम् (च) ॥
विषय
'अराति-अमति-क्षुधा' का निराकरण
पदार्थ
१. हे औदुम्बरमणे! (त्वम्) = तू (मणीनाम्) = सब रत्नों की (अधिपा:) = रक्षक है। वीर्यरक्षण से ही शरीर में सब रमणीय तत्व उत्पन्न होते हैं। (वृषा असि) = तू सब शक्तियों व सुखों का वर्धन करनेवाला है। (पुष्टपति:) = सब पोषक तत्वों के स्वामी प्रभु ने (त्वयि) = तुझमें (पुष्टं जजान) = सब पोषक तत्वों का प्रादुर्भुत किया है। २. (त्वयि) = तुझमें ही (इमे) = ये (वाजा:) = शक्तियाँ तथा (सर्वा द्रविणानि) = सब धन स्थापित हुए हैं। (औदुम्बर:) = तू सब रोगों व पापों से हमें उभारनेवाला है। सः (त्वम्) = वह तू (अस्मत्) = हमसे (अरातिम्) = अदानवृत्ति को, (अमतिम्) = बुद्धि के दारिद्रय को मत्यभाव को (च) = तथा (क्षुधम्) = भूख को (आरात् सहस्व) = सुदूर कुचलनेवाला हो।
भावार्थ
वीर्यरक्षण हमें अदानवृत्ति, कमसमझी व दारिद्रय से दूर रखता है।
भाषार्थ
(मणीनाम्) राज्यरत्नों में (त्वम्) हे वनाधिपति! तू (अधिपाः) वनों का अधिपति, और (वृषा) वन्य सम्पत्तियों की वर्षा करनेवाला (असि) है। (पुष्टपतिः) पोषक तत्त्वों के स्वामी अर्थात् सम्राट् (मन्त्र ७) ने (त्वयि) तुझ में (पुष्टम्) पोषक पदार्थों का अधिकार (जजान) प्रकट किया है। (त्वयि) तेरे अधिकार में (इमे) ये (वाजाः) अन्न और (सर्वा) सब (द्रविणानि) वन्य सम्पत्तियाँ हैं। (सः) वह (औदुम्बरः) वनाधिपति (त्वम्) तू (अस्मत्) हम प्रजाजनों से (अरातिम्) दान न देने की भावना को, (अमतिम्) असन्मति अर्थात् कुमति को, (च) और (क्षुधम्) क्षुधा को (आरात्) दूर कर, (सहस्व) और विरोधी शक्तियों को पराभूत कर।
टिप्पणी
[वाजाः= अन्नानि (निघं० २.७)। अमतिम्=भूखा व्यक्ति कुमति बन जाता है। बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।]
विषय
औदुम्बर मणि के रूप में अन्नाध्यक्ष, पुष्टपति का वर्णन।
भावार्थ
हे मणे ! नरशिरोमणि ! (त्वं) तू (मणीनाम्) अन्य समस्त नर-रत्नों का भी (अधिपाः) पालक और (वृषा) अन्नादि पदार्थो का प्रदाता (असि) है। (पुष्टपतिः) पोषणकारी समस्त पदार्थों का स्वामी राजा (त्वयि) तेरे बलपर (पुष्टम्) समस्त पोषणकारी पदार्थों को (जजान) उत्पन्न करता है। (त्वयि) तेरे ही बलपर (इमे) ये सब (वाजाः) अन्न, (द्रविणानि) समस्त धन ऐश्वर्य उत्पन्न किये जाते हैं। इसीलिये तू (औदुम्बरः= उरुम् भरः) सबको उत्पन्न करने वाला या प्रजा को बहुत पुष्ट करने वाला अधिकारी होकर (सः त्वम्) वह तू (अरातिम्) शत्रु या कृपणता, (अमतिम्) अविवेक और (क्षुधम् च) भूख और प्यास को भी (अस्मत् आरात्) हमसे परे ही (सहस्व) दूर कर।
टिप्पणी
(प्र०) ‘अधिपः’ इति सायणाभिमतः। (द्वि०) ‘पुष्टिपतिः’ इति पैप्प० सं० (तृ०) ‘त्वया में’ इति सायणाभिमतः। ‘अमृतं क्षुधं च’ इति बहुत्र ‘अवर्तिम्’ इति क्वचित्। आरादरातिमभितिक्षयं च इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुष्टिकामः सविता ऋषिः। मन्त्रोक्त उदुम्बरमणिर्देवता। ५, १२ त्रिष्टुभौ। ६ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। ११, १३ पञ्चपदे शक्वर्य्यौ। १४ विराड् आस्तारपंक्तिः। शेषा अनुष्टुभः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Audumbara Mani
Meaning
Audumbara mani, you are supreme over all other jewels. You are generous. In you the lord of creative evolution placed strength and energy for growth. In you abide all these nourishments, energies and wealths of life. O all-supreme master of strength, growth and prosperity, drive off from us indigence, lack of understanding and hunger.
Translation
You are mighty overlord of blessings; the Lord of power has created power within you. Within you are all these foods and possessions. O udumbara blessing may you overthrow niggardness, thoughtlessness and hunger far away from us.
Translation
This Udumbar is excellent amongst all excellent things, it is very powerful, the master of all wealth (Divinity) has produced nourishing quality in it, all these strength and medicinal properties are found in it and let this Udumbar make free away from me the disease, loss of understanding and hunger.
Translation
O Audumber-mani, thou art the lord of all manis. Thou art the showerer of energy and fortunes. The nourisher-in-chief produced in thee a great store of energy and nourishment. In thee are stored all these sources of energy, food and riches. The self-same thou mayst keep away, the enemy, the evil thinking and hunger from us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(त्वम्) (मणीनाम्) प्रशंसनीयानां पदार्थानाम् (अधिपाः) महाराजः (वृषा) वीर्यवान् (असि) (त्वयि) (पुष्टम्) पोषणम् (पुष्टपतिः) पोषणस्वामी धनी पुरुषः (जजान) प्रकटीकृतवान् (त्वयि) (इमे) दृश्यमानाः (वाजाः) बलानि (द्रविणानि) धनानि (सर्वा) सर्वाणि (औदुम्बरः) म०१। संहतिस्वीकर्ता (सः) तादृशः (त्वम्) (अस्मत्) अस्मत्तः (सहस्व) अभिभव। अपगमय (आरात्) दूरे (अरातिम्) अदानशीलताम् (अमतिम्) कुमतिम् (क्षुधम्) बुभुक्षाम् (च) ॥
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