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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 65

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - जातवेदाः, सूर्यः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त

    हरिः॑ सुप॒र्णो दिव॒मारु॑हो॒ऽर्चिषा॒ ये त्वा॒ दिप्स॑न्ति॒ दिव॑मु॒त्पत॑न्तम्। अव॒ तां ज॑हि॒ हर॑सा जातवे॒दोऽबि॑भ्यदु॒ग्रोऽर्चिषा॒ दिव॒मा रो॑ह सूर्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हरिः॑। सु॒ऽप॒र्णः। दिव॑म्। आ। अ॒रु॒हः॒। अ॒र्चिषा॑। ये। त्वा॒। दिप्स॑न्ति। दिव॑म्। उ॒त्ऽपत॑न्तम्। अव॑। तान्। ज॒हि॒। हर॑सा। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। अबि॑भ्यत्। उ॒ग्रः। अ॒र्चिषा॑। दिव॑म्। आ। रो॒ह॒। सू॒र्य॒ ॥६५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हरिः सुपर्णो दिवमारुहोऽर्चिषा ये त्वा दिप्सन्ति दिवमुत्पतन्तम्। अव तां जहि हरसा जातवेदोऽबिभ्यदुग्रोऽर्चिषा दिवमा रोह सूर्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरिः। सुऽपर्णः। दिवम्। आ। अरुहः। अर्चिषा। ये। त्वा। दिप्सन्ति। दिवम्। उत्ऽपतन्तम्। अव। तान्। जहि। हरसा। जातऽवेदः। अबिभ्यत्। उग्रः। अर्चिषा। दिवम्। आ। रोह। सूर्य ॥६५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 65; मन्त्र » 1

    टिप्पणीः - १−(हरिः) दुःखस्य हर्ता (सुपर्णः) महापालकः (दिवम्) दिवु कान्तौ-कप्रत्ययः। कमनीयं सुखस्थानम् (आ अरुहः) रोहतेर्लुङ्। आरूढवानसि (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मणा (ये) विघ्नाः (त्वा) (दिप्सन्ति) दम्भितुमिच्छन्ति। जिघांसन्ति (दिवम्) (उत्पतन्तम्) उद्गच्छन्तम् (अवजहि) विनाशय (तान्) विघ्नान् (हरसा) बलेन (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन (अबिभ्यत्) भीतिम् अकुर्वन् (उग्रः) प्रचण्डः (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मेणा (दिवम्) (आरोह) अधितिष्ठ (सूर्य) हे प्रेरक प्रतापिन् ॥

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