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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - जातवेदाः, सूर्यः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त
    98

    हरिः॑ सुप॒र्णो दिव॒मारु॑हो॒ऽर्चिषा॒ ये त्वा॒ दिप्स॑न्ति॒ दिव॑मु॒त्पत॑न्तम्। अव॒ तां ज॑हि॒ हर॑सा जातवे॒दोऽबि॑भ्यदु॒ग्रोऽर्चिषा॒ दिव॒मा रो॑ह सूर्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हरिः॑। सु॒ऽप॒र्णः। दिव॑म्। आ। अ॒रु॒हः॒। अ॒र्चिषा॑। ये। त्वा॒। दिप्स॑न्ति। दिव॑म्। उ॒त्ऽपत॑न्तम्। अव॑। तान्। ज॒हि॒। हर॑सा। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। अबि॑भ्यत्। उ॒ग्रः। अ॒र्चिषा॑। दिव॑म्। आ। रो॒ह॒। सू॒र्य॒ ॥६५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हरिः सुपर्णो दिवमारुहोऽर्चिषा ये त्वा दिप्सन्ति दिवमुत्पतन्तम्। अव तां जहि हरसा जातवेदोऽबिभ्यदुग्रोऽर्चिषा दिवमा रोह सूर्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरिः। सुऽपर्णः। दिवम्। आ। अरुहः। अर्चिषा। ये। त्वा। दिप्सन्ति। दिवम्। उत्ऽपतन्तम्। अव। तान्। जहि। हरसा। जातऽवेदः। अबिभ्यत्। उग्रः। अर्चिषा। दिवम्। आ। रोह। सूर्य ॥६५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पराक्रम करने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (हरिः) दुःख का हरनेवाला, (सुपर्णः) बड़ा पालनेवाला तू (अर्चिषा) पूजनीय कर्म से (दिवम्) चाहने योग्य सुख स्थान में (आ अरुहः) ऊँचा चढ़ा है, (ये) जो [विघ्न] (दिवम्) सुखस्थान को (उत्पतन्तम्) चढ़ते हुए (त्वाम्) तुझे (दिप्सन्ति) दबाना चाहते हैं, (जातवेदः) हे बड़े धनवाले ! (तान्) उनको (हरसा) [अपने] बल से (अव जहि) मार डाल, (अबिभ्यत्) भय न करता हुआ, (उग्रः) तेजस्वी तू (सूर्य) हे सूर्य ! [प्रेरक मनुष्य] (अर्चिषा) पूजनीय कर्म से (दिवम्) सुखस्थान को (आ रोह) चढ़ जा ॥१॥

    भावार्थ

    पराक्रमी पुरुष सब विघ्नों को हटा कर धनवान् होकर सुखी होवें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(हरिः) दुःखस्य हर्ता (सुपर्णः) महापालकः (दिवम्) दिवु कान्तौ-कप्रत्ययः। कमनीयं सुखस्थानम् (आ अरुहः) रोहतेर्लुङ्। आरूढवानसि (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मणा (ये) विघ्नाः (त्वा) (दिप्सन्ति) दम्भितुमिच्छन्ति। जिघांसन्ति (दिवम्) (उत्पतन्तम्) उद्गच्छन्तम् (अवजहि) विनाशय (तान्) विघ्नान् (हरसा) बलेन (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन (अबिभ्यत्) भीतिम् अकुर्वन् (उग्रः) प्रचण्डः (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मेणा (दिवम्) (आरोह) अधितिष्ठ (सूर्य) हे प्रेरक प्रतापिन् ॥

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    भाषार्थ

    (सूर्य) हे आदित्य ब्रह्मचारी! तू (हरिः) अविद्यास्मिता आदि क्लेशों का अपहरण किये हुये है, (सुपर्णः) तू रश्मि के सदृश प्रकाशमान है, (अर्चिषा) और योगजन्य ज्योति के सहारे (दिवम्) शिरःस्थ सहस्रार चक्र तक (आरुहः) तू आरोहण कर चुका है। दैनिक योगाभ्यास में (दिवम्) शिरःस्थ चक्र की ओर (उत् पतन्तम्) ऊपर आरोहण करते हुए (त्वा) तेरे साथ (ये) जो राजसी-तामसी शक्तियाँ (दिप्सन्ति) दम्भाचरण करती हैं, (तान्) उन्हें (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ! (हरसा) निज प्रत्याहार या अपहरणशक्ति द्वारा (अव जहि) मार गिरा। और (अबिभ्यत्) भयरहित होकर। (अर्चिषा उग्रः) तथा योगजन्य ज्योति द्वारा उग्र होकर (दिवम्) शिरःस्थ सहस्रार चक्र तक (आ रोह) आरोहण करता रह।

    टिप्पणी

    [सूक्त ६४ में ब्रह्मचारियों का वर्णन हुआ है। उच्च कोटि का ब्रह्मचारी आदित्य ब्रह्मचारी होता है, जिसे कि ६५वें सूक्त में सूर्य कहा है। सुषुम्णा नाड़ी में आठ चक्र होते हैं, जो कि प्रकाश के केन्द्र हैं। मूलाधार चक्र से ऊपर के चक्रों में आरोहण करते हुए योगी को सहस्रार चक्र तक आरोहण करना होता है, जो कि शिरःस्थ मस्तिष्क में विद्यमान है। तदनन्तर योगी ऊर्ध्व-नाड़ी द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है। मन्त्र में “दिवम्” द्वारा शिरःस्थ सहस्रार चक्र का वर्णन हुआ है। दिव्=सिर। यथा—“शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत” (यजुः० ३१.१३); तथा “दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः” (अथर्व० १०.७.३२)। आध्यात्मिक दृष्टि में दिव् या द्यौः सिर या मस्तिष्क है, जिसमें सहस्रार चक्र सूर्यरूप में स्थित है। योगाभ्यास में राजसी और तामसी प्रलोभन योगी को पथभ्रष्ट भी कर सकते हैं, जिनकी ओर कि योगदर्शन में “स्थान्युपनिमन्त्रणे संगस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसंगात्” (३.५१) द्वारा दर्शाया है। इन प्रलोभनों से योगी को बचे रहना चाहिये। आधिदैविक दृष्टि से द्युलोकस्थ सूर्य का भी वर्णन है। सूर्य क्षितिज से उठकर द्युलोक की ओर आरोहण करता है। कभी-कभी बादलों कोहरे धूल तथा सूर्य-ग्रहण आदि के कारण उदित हुआ-हुआ सूर्य दृष्टिगोचर नहीं भी होता। ये मानो सूर्योदय के दर्शन में बाधक होते हैं। सूर्य की उग्र किरणें जब बादल आदि का अपहरण कर देती हैं, तो सूर्य द्युलोक में आरूढ़ हुआ दृष्टिगोचर होने लगता है। मन्त्र में मुख्य भावना आध्यात्मिक है। सुपर्णाः रश्मिनाम (निघं० १.५)।]

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    विषय

    अर्चिषा-हरसा

    पदार्थ

    १. (हरि:) = ब्रह्मचर्याश्रम में अपने अज्ञानान्धकार का स्वाध्याय द्वारा हरण करनेवाले और पुनः गृहस्थ में (सुपर्ण:) = उत्तम पालनादि कर्मों में प्रवृत्त जीव! तू (अर्चिषा) = ज्ञानदीति के द्वारा (दिवम् आरुहः) = लोक का आरोहण कर। पृथिवीलोक से अन्तरिक्षलोक में, अन्तरिक्षलोक से इलोक में तथा धुलोक से तूने प्रकाशमय ब्रह्मलोक में पहुँचना है। २. (दिवम् उत्पतन्तम्) = इस प्रकाशमय लोक की ओर ऊपर उठते हुए (त्वा) = तुझको (ये) = जो काम, क्रोध व लोभरूप शत्रु (दिप्सन्ति) = हिंसित करना चाहते हैं, (तान) = उनको (हरसा) = तेज के द्वारा (अवजहि) = सुदूर विनष्ट करनेवाला हो। ३.हे (जातवेदः) = वानप्रस्थ में स्वाध्याय में नित्ययुक्त होने से उत्पन्न ज्ञानवाले सूर्य-संन्यास में सूर्य के समान ज्ञानदीप्त पुरुष! अब तू (अबिभ्यत्) = निर्भय होकर (उग्रः) = तेजस्वी व शत्रुभयंकर होता हुआ (दिवम् आरोह) = इस प्रकाशमय पद पर आरोहण कर।

    भावार्थ

    हम हरि, सुपर्ण, जातवेदाः व सूर्य' बनते हुए ज्ञानदीसि च शत्रुसंहारक तेज से काम आदि का विध्वंस करके प्रकाशमय लोक का आरोहण करें।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    On, Onwards Rise

    Meaning

    O Reliever of discomfort and pain, ‘Celestial Bird’, O Sun, Jataveda, with your blazing light, you have risen to the heavens. Those who obstruct you while you fly up and rise to the heavens, strike down with your heat and passion. O Jataveda, Universal light, bright and blazing, rise on and on to the heavens, with light, without fear.

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    Subject

    Praise of the Sun

    Translation

    Remover (of gloom) one of beautiful rays, the, sun, has, ascended to heaven with his glow. Whoévér obstructs you in flying up to the sky, may you smite, them down with youre flame, without fear, O cognizant of all. O sun, ing fierce may you ascend to the sky.

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    Translation

    The sun which is the store of igneous substance, which possesses nice rays and which carries the water from earth and mounted heavenly region with light. Those forces which harm This sun moving in the sky it beats them down by its strong vigor. Without any danger it being strong soar to heaven with its radiance.

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    Translation

    Oh! Yogin, shedding off all ignorance, shining like the Sun, fully equipped with all powers, rise to the highest state of bliss by your glory and grandeur. Whoever want to suppress you from flying to the highest state of beatitude, crush them by your force of destroying evil. Being fearless and terrible by your grandeur, let you rise to the most shining state of bliss.

    Footnote

    Similarly a king by overcoming all opposing forces of the enemies may reach the highest throne of monarch.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(हरिः) दुःखस्य हर्ता (सुपर्णः) महापालकः (दिवम्) दिवु कान्तौ-कप्रत्ययः। कमनीयं सुखस्थानम् (आ अरुहः) रोहतेर्लुङ्। आरूढवानसि (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मणा (ये) विघ्नाः (त्वा) (दिप्सन्ति) दम्भितुमिच्छन्ति। जिघांसन्ति (दिवम्) (उत्पतन्तम्) उद्गच्छन्तम् (अवजहि) विनाशय (तान्) विघ्नान् (हरसा) बलेन (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन (अबिभ्यत्) भीतिम् अकुर्वन् (उग्रः) प्रचण्डः (अर्चिषा) पूजनीयेन कर्मेणा (दिवम्) (आरोह) अधितिष्ठ (सूर्य) हे प्रेरक प्रतापिन् ॥

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