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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 48 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 48/ मन्त्र 5
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
अ॒हमिन्द्रो॒ न परा॑ जिग्य॒ इद्धनं॒ न मृ॒त्यवेऽव॑ तस्थे॒ कदा॑ च॒न । सोम॒मिन्मा॑ सु॒न्वन्तो॑ याचता॒ वसु॒ न मे॑ पूरवः स॒ख्ये रि॑षाथन ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । इन्द्रः॑ । न । परा॑ । जि॒ग्ये॒ । इत् । धन॑म् । न । मृ॒त्यवे॑ । अव॑ । त॒स्थे॒ । कदा॑ । च॒न । सोम॑म् । इत् । मा॒ । सु॒न्वन्तः॑ । या॒च॒त॒ । वसु॑ । न । मे॒ । पू॒र॒वः॒ । स॒ख्ये । रि॒षा॒थ॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमिन्द्रो न परा जिग्य इद्धनं न मृत्यवेऽव तस्थे कदा चन । सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु न मे पूरवः सख्ये रिषाथन ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । इन्द्रः । न । परा । जिग्ये । इत् । धनम् । न । मृत्यवे । अव । तस्थे । कदा । चन । सोमम् । इत् । मा । सुन्वन्तः । याचत । वसु । न । मे । पूरवः । सख्ये । रिषाथन ॥ १०.४८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 48; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
विषय - अध्यात्म धन
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
जैसे विष्णु ने विष्णुपुरी माना है इसी प्रकार इस मानव शरीर को इन्द्रपुरी माना है। इन्द्र किसे कहा जाता है? इन्द्र नाम है जो अपनी इन्द्रियों का स्वामी है, देवताओं का स्वामी है। देवताओं का अधिराज है। कैसा सुन्दर वह इन्द्र है? इस आत्मा को भी इन्द्र कहा जाता है। यह आत्मा उस काल में इन्द्र होता है जब यह देवताओं को प्राप्त हो जाता है। देवता किसे कहते हैं बेटा! कुछ जड़ देवता होते हैं, कुछ चेतन देवता होते हैं। दोनों प्रकार के देवताओं को जानता हुआ और इस आत्मा को सब देवता अपना अधिराज चुनें। उस काल में इस आत्मा को हमारे यहाँ इन्द्र कहा गया है और इस शरीर को जिसमें रहने वाला इन्द्र है इन्द्रपुरी कहा गया है। बेटा! ऋषियों ने ऋषिपुरी माना है क्योंकि इसमें ऋषिवर अनुसन्धान करते हैं। कैसा अनुसन्धान करते हैं कहीं योग का अनुसन्धान है, कहीं आयुर्वेद का अनुसन्धान है। अनुसन्धान करते रहते हैं और मृत्यु से पार होने का प्रयास करते रहते हैं। ऋषियों का कर्त्तव्य यही होता है कि अपना योगाभ्यास करते हुए, अपने अन्तरात्मा को उज्ज्वल बना लेते हैं और आहुति देते हैं। सुन्दर इन्द्रियों के विषयों की आहुति देकर के अपने ऋषित्व को प्राप्त हो जाते हैं।
मेरे प्यारे! महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज के अध्ययन करने की कोई सीमा तो नहीं थी, वह अध्ययन करते रहते थे। परन्तु देखो, महाराजा सोमकेतु ऋषि महाराज ने कहा ऋषिवर! आप तो ब्रह्मवेत्ता है मैं यह जानना चाहता हूँ कि अवन्तिका इसकी बनती है। तो यह मानो जो गन्धर्व वृणी कहलाता है इसकी भी कोई अवन्तिका है? उन्होंने कहा इन्द्र है। वह इन्द्र मानो देखो, भिन्न भिन्न रूपों में रहता है। एक इन्द्र बाह्य जगत में, राजा को इन्द्र कहते है, जो राजाओं का भी अधिराज कहलाया जाता है। एक हमारे यहाँ प्रायः देखो, परम्परागतों से ही, एक उपाधि मानी जाती है। जिसको हमारे यहाँ इन्द्र उपाधि कहते हैं। वह इन्द्र उपाधि इसलिए है क्योंकि राजाओं के ऊपर एक अधिराज की उपाधि प्रदान की जाती है। जो एक सौ एक अश्वमेध याग करने वाला है उसको इन्द्र कहते हैं। एक तो वह राजाओं में विशिष्ठ राजा कहलाता है। एक परमपिता परमात्मा को इन्द्र कहते हैं। एक आत्मा को भी इन्द्र कहा जाता हैँ जो इन्द्रियों को अजय, जो इन्द्रियों को अपने वशीभूत करने वाली, जो इन्द्रियों का स्वामीतव करने वाली है, वह आत्मा है। वह जानाति जन्म ब्रह्म वह ज्ञान की कुंज कहलाती है।
इसी प्रकार आगे वेद के ऋषि ने बेटा! बहुत ऊँची वार्त्ता प्रगट की उन्होंने कहा यह जो इन्द्र है यह इन्द्र भिन्न भिन्न रूपों में परिणत रहने वाला है। यह इन्द्र जो अपने में अनुसन्धान करता हुआ, आत्मा को भी इन्द्र कहते है क्योंकि वह इन्द्रियों का स्वामी है। इसी प्रकार परमात्मा को इन्द्र कहते है, क्योंकि वह प्रकृति का स्वामीतव करने वाला है। मेरे प्यारे! देखो, यह प्रकृति का जो स्वामीतव करने वाला है, इसी को इन्द्र कहते है। हे इन्द्र! एक इन्द्र मण्डल होता है। जिसमें गन्धर्व भी समाहित हो जाता है, वह इन्द्र कहलाता है। परमात्मा का जगत, परमात्मा का ब्रह्माण्ड जो बड़ा एक अनुपम कहलाता है। एक आश्चर्य चकित होने वाला यह ब्रह्माण्ड हमें प्रतीत होता है। जिसके ऊपर हम चिन्तन और मनन करना प्रारम्भ करते हैं। जब हम मनन करने लगते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है, कि अनुपम ब्रह्माण्ड उस मेरे देव का एक अनन्तमयी मुझे दृष्टिपात आता है। इसी प्रकार एक एक लोक में रचना अथवा उसकी प्रतिभा के ऊपर चिन्तन करना प्रारम्भ करते हैँ तो बेटा! एक अनुपम ब्रह्माण्ड हमारे समीप आ जाता है।
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-परमात्मा की मित्रता
हे देव! हे सखा! वेदों ने आपको मित्र कहा है, जो आपसे मित्रता कर लेता है, उसे संसार में किसी मानव को मित्र बनाने की आवश्यकता नहीं, आप ऐसे मित्र हैं, कि हमारे हृदय की सब इच्छाएं पूर्ण होती रहती है। परन्तु प्रभु तो अनन्त है, हम अनन्त नहीं। प्रभु को मित्र कौन बनाएगा? मुनिवरों! आज मानव का यह केवल सीमित विचार है। अरे, सीमित विचार न बनाओ। यह आत्मा भी तो अनन्त है, जैसा परमात्मा अनन्त है। आत्मा भी तो उसके प्रवाह में जाकर अनन्त बन जाता है। जब उसको मित्र बना लेता है, तो उसके गुण उसमें आ जाते हैं। जब मित्र के गुण आ जाते है तो जैसा मित्र अनन्त है, वैसा ही मित्र भाव भी अनन्त बन जाता है। उसको वही मित्र बनाएगा, जो महान इस प्रकृति के आवेशों को अपने स्वार्थो को और अपनी क्लिष्टताओं को त्याग देता है, प्रभु में महान श्रद्धा हो जाती है, कि प्रभु मेरा मित्र है।
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