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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वे देवा आङ्गिरसो वा छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    य उ॒दाज॑न्पि॒तरो॑ गो॒मयं॒ वस्वृ॒तेनाभि॑न्दन्परिवत्स॒रे व॒लम् । दी॒र्घा॒यु॒त्वम॑ङ्गिरसो वो अस्तु॒ प्रति॑ गृभ्णीत मान॒वं सु॑मेधसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । उ॒त्ऽआज॑न् । पि॒तरः॑ । गो॒ऽमय॑म् । वसु॑ । ऋ॒तेन॑ । अभि॑न्दन् । प॒रि॒ऽव॒त्स॒रे । व॒लम् । दी॒र्घा॒य॒ुऽत्वम् । अ॒ङ्गि॒र॒सः॒ । वः॒ । अ॒स्तु॒ । प्रति॑ । गृ॒भ्णी॒त॒ । मा॒न॒वम् । सु॒ऽमे॒ध॒सः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उदाजन्पितरो गोमयं वस्वृतेनाभिन्दन्परिवत्सरे वलम् । दीर्घायुत्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । उत्ऽआजन् । पितरः । गोऽमयम् । वसु । ऋतेन । अभिन्दन् । परिऽवत्सरे । वलम् । दीर्घायुऽत्वम् । अङ्गिरसः । वः । अस्तु । प्रति । गृभ्णीत । मानवम् । सुऽमेधसः ॥ १०.६२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -

    भाषार्थः हे (अंगिरस) तपस्वी! अग्नि विद्या में सिद्धहस्त, (सुमेधसः) उत्तम मेधा बुद्धि सम्पन्न, (पितर) पितृ जनों (व) आपकी (दीर्घायुत्वम् अस्तु) लम्बी दीर्घ आयु होवे, (परिवत्सरे) सूर्य की गति के साथ विद्यमान रह कर (ऋतेन् बलम् अभिन्दन्) ज्ञान के द्वारा (वल) अज्ञान को नष्ट करते हुए, (गोमयं वसु उदाजन्) वाणी रुपी धन को (गौरिति वाङ्नाम् निघुण्टु 1.11) देते हुए आप (मानवं प्रति गृभ्णीत) मनुष्य बना करके हमे अनुगृहीत करें। भाष्यः सूर्या देवी चतुर्वेदा

    विद्यालयों में वानप्रस्थियों द्वारा शिक्षा

    मैंने बहुत पुरातन काल में कहा कि संसार में यदि प्रत्येक मानव अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए तत्पर हो जाता है जैसे मुनिवरों! हमारे यहाँ, प्रत्येक पदार्थ अपने में कर्तव्यवाद में लगा हुआ है जैसे मुनिवरों! देखो, जैसे इससे पूर्वकाल में हमने प्रकट कराया कि सूर्य समय से उदय होता है और उदय होते ही ऊर्ज्वा देना प्रारम्भ कर देता है। वह पितरों की कोटि में माना गया है। वह हमारा पितर कहलाता है।

    मानव के जीवन के ऋषि मुनियों ने मेरे प्यारे! देखो, चिन्तन करने के लिए, चार विभाग में मानव के जीवन को परिवर्तित किया है। मानव के जीवन को चार विभागों में मानो विभक्त किया है। सबसे प्रथम बेटा! ब्रह्मवर्चोसि, ब्रह्मचरिष्यामि मेरे प्यारे! देखो, सबसे प्रथम जब यह मानव ब्रह्मचरिष्यामि बनता है और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगता है।

    विचार केवल यह उच्चारण करने के लिए कि वानप्रस्थ की जो प्रतिक्रियाएं हैं, दीक्षा ली जाती है वो दीक्षा ले करके मानो देखो, बुद्धिमानो  से, वह स्वयं बुद्धिमान होते हैं और वह विद्यालयो में ब्रह्मचारी अथवा ब्रह्मचारिणी को शिक्षा प्रदान करते हैं। अपने अनुभव प्रगट करते है। अपनी विचारधारा देते हैं, दर्शनों का गुथा हुआ ज्ञान देते हैं, तो बेटा! देखो, वह महानता में परणित होता है। मैंने बहुत पुरातन काल में तुम्हें एक वाक्य प्रकट किया था। ओर वह वाक मुनिवरों! देखो, सर्वोपरि सिद्ध कहलाता है। वैज्ञानिक आभा में।

    मेरे पुत्रों! देखो, महाराजा अश्वपति के यहाँ ऋषि मुनियों का एक समाज एकत्रित हुआ और ऋषि मुनियों ने यह निर्णय किया कि ऊर्ध्वा में देखो, पठन पाठन का जो क्रम बनाया। एक मानो आचार्य पठन पाठन के आश्रम में प्रवेश हुआ जिनका नवीन मानो देखो, संस्कार हुआ, जब संस्कार हुआ, जब संस्कार हुआ तो उसको एक पठन पाठन का वृत था जो मानो देखो, वह तो दीक्षा ले करके जो वानप्रस्थी थे जिनका संसार के नाना वासनाओं से मानो हृदय तृप्त हो गया था, उनका मानसिक जो चलन था, वह बड़ा विचित्र रहा। तो मेरे प्यारे! देखो, मुझे ऐसा स्मरण है जब ऋषि मुनियों का एक समूह एकत्रित हुआ। इन ऋषिओं में महर्षि प्रवाहण, महर्षि शिलभ, महर्षि दालभ्य, महर्षि रेणवृत्तिका ये सब उसमें विद्यमान थे और भी नाना ऋषि थे। तो मुनिवरों! देखो, रेणवृत्तिका एक वैज्ञानिक उनके यहाँ थे। उन्होंने एक यन्त्र का निर्माण किया था, जिस यन्त्र में ये विशेषता थी कि मानव शब्दों का उच्चारण कर रहा है और वह शब्दों का चित्र बन करके चित्रावली में दृष्टिपात आ रहा है। उसका जो चयन है जो शब्द है, जो क्रियाएं हैं जो ब्रह्मचारियों को उद्गीत गाया जा रहा था मानो देखो, वह चित्र बन बन करके उन यन्त्रों में दृष्टिपात हो रहे थे। मेरे प्यारे! देखो, जब वह यन्त्रों में दृष्टिपात कराया, तो मुनिवरों! देखो, महाराजा अश्वपति से कहा ऋषि मुनियों ने कि महाराज! जिनका संस्कार युवापन में हुआ हो, तो वह आचार्य विद्यालय में नहीं होने चाहिए। उन्होंने इसका जब विरोध किया, तो महाराजा अश्वपति ने कहा, क्या इसका प्रमाण क्या? इसका प्रमाण यह है क्या आचार्यकुल में जब आचार्य युवक होगा अथवा मानो देखो, नवीन संस्कारवादी होगा, नवीन पत्नीवादी होगा, तो मानो उसकी तरंगें ब्रह्मचारियों को स्पर्श किए बिना रह नहीं सकती। ये वाक्य उन्होंने प्रकट किया। जब यह वाक उन्होंने प्रगट किया तो मुनिवरों! मुझे कुछ ऐसा स्मरण आता रहा है, मुझे भी सौभाग्य प्राप्त होता रहा है, अध्यापन का। तो मानो देखो, महाराजा अश्वपति ने जब मानो इस विरोध को स्वीकार किया और इस विरोध को जाना, तो जानने के पश्चात उन्होंने ऋषि मुनियों का एक समाज एकत्रित किया। और उन्होंने यन्त्रों में, उनकी वाणी को मुनिवरों! देखो, भरण कराया, तो यन्त्रों में देखो, शब्दों का विभाजन कर रहा था। जब शब्दों का विभाजन कर रहा था तो मुनिवरों! देखो, नवीन संस्कारवादी आचार्यों का चित्र जब उसमें दृष्टिपात आने लगा तो वह उसकी तरंगें ब्रह्मचारियों को स्पर्श कर रही थी, ब्रह्मचारियों का अन्तर्हृदय था उस आचरण में प्रवेश नहीं कर सका, जो वास्तव में होना चाहिए था। मानो देखो, यही काराणादि ब्रह्मा देखो, जब इस प्रकार के आचार्य विद्यालयों में प्रवेशं ब्रह्मा, शिक्षा देते हैं तो ब्रह्मचारी जब विद्यालय से अवकाश पाता है तो वह ब्रह्मचारी जिस भूमिका में वह पनपा है, जिस भूमिका में रहा है, वह भूमिका विद्यालय से बाह्य जा करके वह भूमिका भ्रष्ट हो जाती है। जब वह भ्रष्ट हो जाती है तो वह बाल्यकाल में देखो, आचार्य के यहाँ भय से और देखो, अणुवृत्तियों से वह मानो देखो, उसी वस्त्रों में रहना, वहीं मानो देखो, चरण वन्दना करना, वह केवल चरण वन्दना स्थायी नहीं रहती। वह स्थायी उस काल में रहती है जबकि मानो देखो, निष्पक्ष होने वाले, वानप्रस्थी, पति पत्नी जब दीक्षा ले करके वह शिक्षा प्रदान करते हैं मानो देखो, वह ब्रह्मचारियों के हृदय को पवित्र बना देते है। उनकी जो भूमिका है, अथवा वेश है, भूषा है, वह स्थायी बन जाती है। चरण वन्दना उनकी स्थायी हो जाती है। तो मानो देखो, उस समय विद्यालय सफलता को प्राप्त होते हैं। मैंने बहुत पुरातन काल में मानो निर्णय देते हुए कहा था, मेरे प्यारे! महानन्द जी! ने मुझे वर्णन कराते हुए कहा था कि आधुनिक काल में, राष्ट्र में इस प्रकार की धारा है, जब राजा के मन में ये विचार आ जाता है कि मुझे तो मानो देखो, ब्रह्मचारियों को, विद्यालय में शिक्षा अपने राष्ट्र कोष से आर्थिक स्थिति, अपठित प्राणियों को देनी है तो उस राजा का राष्ट्र राष्ट्र नहीं रहता। मानो देखो, राजा का राष्ट्र जब रहता है जब मुनिवरों! देखो, दीक्षा दिए हुए वानप्रस्थी देखो, विद्यालयों में ब्रह्मचारियों को देखो, वानप्रस्थी शिक्षा देने वाले होते हैं। और ब्रह्मचारिणीयों को, जो मेरी प्यारी माता है, जो ब्रह्मचर्य से व्रत ले करके शिक्षा में परणित हुई है, जब शिक्षा देना प्रारम्भ करती है तो उनका जो कर्म है, उनकी जो धाराएं है वह स्थायी रहती है, जो वह देते हैं वह स्थायी बनी रहती है, आज मानो देखो, मुझे एक समय मेरे प्यारे! महानन्द जी! ने मुझे प्रगट कराया, कि विद्यालयों से ब्रह्मचारियों को जब अवकाश प्राप्त होता है और वह बाह्य जगत में आते हैं तो बाह्य जगत में आ करके वह ऐसे बन जाते हैं जैसे उद्दण्ड प्राणी होते है, तो इस प्रकार का विचार बेटा! मैंने बहुत पुरातन काल में प्रकट किया। महाराजा अश्वपति की चर्चा चल रही थी। महाराजा अश्वपति ने मानो देखो, उन विचारों को लिया, जिनका नवीन संस्कार हुआ है। वह केवल विलासिता के क्षेत्र में प्रवेश कर गया है, और वह ब्रह्मचारियों को शिक्षा दे रहा है। तो उसकी जो मन की प्रवृत्ति है, वह तरंगित हो करके, ब्रह्मचारियों को स्पर्श कर रही है परन्तु देखो, वह इसी प्रकार ब्रह्मे वाचा ब्रह्मा लोकां वृत्ति देवां ओर वृत्ति ब्रह्मो और ब्रह्मचारिणीयों को भी इसी प्रकार की प्रवृत्तियां बन जाती है। परन्तु देखो, वह शिक्षा लिया हुआ, वानप्रस्थी, जब शिक्षा देने लगा, तो उनके चित्र जब यन्त्रों में आए, तो मानो देखो, मग्न हो रहे है। मग्न हो करके, वो तरंगें मग्न हो रही हैं और वह हृदय में स्थायी हो करके, पुरातन जो संस्कार मानव के हृदयों में मानो देखो, परमाणुवाद में परणित हो रहे हैं। वह जागरूक हो रहे है। जब वह जागरूक होते दृष्टिपात आने लगे, तो महाराजा अश्वपति ने इस वाक को स्वीकार किया इस वाक को स्वीकार कर लिया कि वास्तव में हमारे यहाँ एक यह कर्मबद्ध होना चाहिए। तो मानो देखो, महाराजा अश्वपति ने सर्वत्र राष्ट्र में यह घोषणा कर दी, क्या युवकों को कोई और क्रियाकलाप दिया जाएं, क्या शिक्षा का जो विभाग है, शिक्षा की जो प्रणाली है वह वानप्रस्थियों को प्रदान कर देनी चाहिए। मानो देखो, महाराजा अश्वपति के यहाँ जब यह घोषणा हुई, तो मानो देखो, राष्ट्र में वह नियमावली बन गयी। इसी प्रकार भगवान राम के राष्ट्र में भी इसी प्रकार की नियमावली बनी।

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