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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
अग्न॒ आ या॑हि वी॒तये॑ गृणा॒नो ह॒व्यदा॑तये। नि होता॑ सत्सि ब॒र्हिषि॑ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । आ । या॒हि॒ । वी॒तये॑ । गृ॒णा॒नः । ह॒व्यऽदा॑तये । नि । होता॑ । स॒त्सि॒ । ब॒र्हिषि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। आ। याहि। वीतये। गृणानः। हव्यऽदातये। नि। होता। सत्सि। बर्हिषि ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज -
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-अग्न आयाहि
हे अग्नि! तू मेरे संकल्प को पूर्ण कर, वह ‘अग्न आयाहि’ कह करके उसे पुकारता रहता है उसको वह कहता है हे अग्नि! आ तू मेरे हृदय में समाहित हो, वह ब्रह्माग्नि है, वही उग्र अग्नि है और वही विष्णु वाचन अग्नि कहलाती है। वही अग्नि जब देवताओं के समीप जाती है तो देवताओं का मुख बन करके उनकी तृप्ति करती रहती है। वही अग्नि जब वैज्ञानिकों के समीप जाती है तो वही अग्नि नाना प्रकार के परमाणुओं को जागरूक करके, यन्त्रों का निर्माण करने लगती है।
हे अग्नि! तू देवताओं का मुख माना गया है, क्योंकि देवता तेरे से ही नाना प्रकार की सहायता को प्राप्त करते रहते है और तू सहायता देता रहता है। हे अग्नि! तू प्रकाश का पुंज कहलाता है। तू प्राण सत्ता को देने वाला है, तू अग्नि का मुख कहलाया गया है, हम तेरे में ही नाना प्रकार के साकल्यों को प्रदान कर रहे है। वह साकल्य देता है विचारां की सुगन्धि हो रही है।
हे अग्नि! तू आ हमारे अन्तर्हृदय की अग्नि और बाह्य जगत की अग्नि दोनों का जब समन्वय हो जाता है। तो हमारा कल्याण हो जाता है।
हे प्रभो! आपको अग्नि स्वरूप माना गया है क्योंकि अग्नि, आपकी अग्नि स्वरूप चेतना से बनी है। हे प्रभो! आप हमारे पापों का मोचन करने वाले हैं क्योंकि कर्मों के अनुसार जब हमें फल प्रदान कर देते हैं तो उससे हमारे जीवन में एक नवीनता का प्रसार होने लगता है। हे प्रभो! हमें प्रकाश, आप की महिमा से ही प्राप्त होता है। आपके प्रकाश को जब हम अपने में दृष्टिपात करते हैं तो उसका वर्णन नहीं कर पाते हैं, क्योंकि वह ऐसा अद्वितीय प्रकाश है जिसको पान करने के पश्चात् मानव के जीवन में एक महत्ता दिखने लगती है।
हे अग्नि! तू मुझे हवि दे। मैं तुझे हवि देता हूँ तू मुझे सत् मार्ग दे। इसी पर जब वह अग्नि पर अपने विचार देता है जो देवताओं का दूत है, अग्नि सब देवताओं पर प्रसारण कर देती है तो वह जो देवता हैं वह हमारे मानव शरीर में कार्य करते हैं कहीं अग्नि के रूप में हैं, कही जल के रूप में, कहीं वायु के रूप में, कहीं अन्तरिक्ष के रूप में, कहीं सूर्य के रूप में, कहीं चन्द्रमा के रूप में, नाना प्रकार के नक्षत्रों के रूप में भी हमारे मानव शरीर में कार्यवाहक होता रहता है। तो यह जो देवता है, यह मानव शरीर सुचारू रूप से कार्य करते हैं और मानव की जो प्रवृत्ति है, मानव का जो विचार हैं वे देवता उसे बाह्य कर देते हैं कि तू इस कार्य को शुद्ध रूप से कर।
हे अग्नि! तुझे वेद ने अग्निवेतु कहा है। देवताओं का दूत कहा है। जब संसार में देवी यज्ञ होता है तूं ही उस सप्त कोण की यज्ञशाला में प्रदीप्त रहती है तूं ही है जो नाना प्रकार के साकल्प को लेकर के साकल्य के साथ में विचार को लेकर के, साकल्य के विचार के साथ में मानव के चरित्र को लेकर के तू इस संसार में प्रसारण कर देता है। द्यु लोक तक मानव का चित्रण किया जाता है। एक विज्ञानवेत्ता है,वह चित्रण कर रहा है इस अग्नि की धाराओं के ऊपर विराजमान हो करके, उस अग्नि की धारा को विद्युत कहते हैं।
क्योंकि अग्नि का नाम विद्युत है। इसको अभादकेतु भी कहा है, द्यु अग्नि भी कहा है। द्यु भी कहते हैं। जब शब्द इसके ऊपर विराजमान हो जाता है तो शब्द व्यापक बन जाता है, और मानव का चित्र वह इस अग्नि के ऊपर विश्राम करता है, तो चित्रावली संसार में ओत प्रोत हो जाती है। जब मानव श्वास लेता है, एक श्वास के साथ में जितना मानव का यह शरीर है इसी के आकार का उन परमाणुओं में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो जाता है। और वह जो निर्माण किया हुआ निर्माण हुआ जो चित्र है वही अग्नि के ऊपर सवार हो कर के,, उस चित्र की जो धाराएं हैं, लगभग एक क्षण समय में अरबों खरबों तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं, उसकी इतनी गति होती है। उसी के आधार पर विज्ञान वेत्ताओं ने, हमारे ऋषि मुनियों ने ऐसा कहा है कि वही एक धारा है जो संसार में चित्रावलियों का निर्माण कर देती है।
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