ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
अग्न॒ आ या॑हि वी॒तये॑ गृणा॒नो ह॒व्यदा॑तये। नि होता॑ सत्सि ब॒र्हिषि॑ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । आ । या॒हि॒ । वी॒तये॑ । गृ॒णा॒नः । ह॒व्यऽदा॑तये । नि । होता॑ । स॒त्सि॒ । ब॒र्हिषि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये। नि होता सत्सि बर्हिषि ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। आ। याहि। वीतये। गृणानः। हव्यऽदातये। नि। होता। सत्सि। बर्हिषि ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यतस्त्वं गृणानो होता बर्हिषि वीतये हव्यदातये निषत्सि तस्मादस्माकं समिधमाऽऽयाहि ॥१०॥
पदार्थः
(अग्ने) विद्वन् (आ) (याहि) आगच्छ (वीतये) विद्यादिशुभगुणव्याप्तये (गृणानः) स्तुवन् (हव्यदातये) दातव्यदानाय (नि) (होता) दाता (सत्सि) समवैषि (बर्हिषि) उत्तमायां सभायाम् ॥१०॥
भावार्थः
यत्र विद्वांसो विद्यावृद्धिं चिकीर्षन्ति तत्र सर्वे सुखिनो भवन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! जिस कारण से आप (गृणानः) स्तुति करते हुए (होता) दाता (बर्हिषि) उत्तम सभा में (वीतये) विद्या आदि श्रेष्ठ गुणों की व्याप्ति के लिये और (हव्यदातये) देने योग्य के दान के लिये (नि, सत्सि) उत्तम प्रकार जानते हो इससे हम लोगों की उत्तम दीप्ति को (आ, याहि) सब प्रकार प्राप्त होओ ॥१०॥
भावार्थ
जहाँ विद्वान् जन विद्या की वृद्धि करने की इच्छा करते हैं, वहाँ सब सुखी होते हैं ॥१०॥
विषय
ज्ञान की पुकार । राजसभा में राजा को प्रधान पद की प्राप्ति ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! अग्निवत् तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! तू ( गृणानः ) उपदेश देता हुआ ( वीतये ) हम प्रजाजनों, शिष्यों वा उपासकों को रक्षा करने, ज्ञान से प्रकाशित करने और (हव्यदातये ) देने योग्य ज्ञानैश्वर्यं आदि प्रदान करने के लिये (आ याहि) हमें प्राप्त हो और ( होता ) दानशील तू ( बर्हिषि ) वृद्धि, मान आदर युक्त आसन, प्रजाजन वा राज्य सभा में (नि सत्सि ) नियत होकर विराज । परमेश्वर ( बर्हिषि ) प्रत्येक यज्ञ वा वृद्धिशील प्रत्येक चेतन २ में विराजता है । इति द्वाविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
हृदयासन पर प्रभु को आसीन करना
पदार्थ
[१] (अग्ने) = हे प्रकाशमय प्रभो ! (आयाहि) = आप आइये । हमें प्राप्त होइये, जिससे (वीतये) = अज्ञानान्धकार के ध्वंस के लिये [वी असने] हम समर्थ हों। आपके प्राप्त होते ही प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है, अन्धकार समाप्त हो जाता है। (गृणान:) = हमारे लिये ज्ञानोपदेश को करते हुए आप (हव्यदातये) = हव्य पदार्थों के, यज्ञिय उत्तम पदार्थों के देने के लिये होइये। आपकी कृपा से हम हव्य पदार्थों को प्राप्त करके यज्ञों की वृत्तिवाले बनें । [२] (होता) = सब हव्य पदार्थों के दाता [हु दाने] होते हुए आप (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (निसत्सि) = निश्चय से विराजिये । हमारा पवित्र हृदय आपका आसन बने। इस हृदयासन पर आपको बिठाकर हम आपका पूजन कर पायें।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने हृदयों में प्रभु को आसीन करें। सब अज्ञानान्धकार का ध्वंस होकर प्रकाश ही प्रकाश हो जाएगा।
मराठी (1)
भावार्थ
जेथे विद्वान विद्यावृद्धीची इच्छा करतात तेथे सर्वजण सुखी होतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Come Agni, sung and celebrated, to join our feast of enlightenment, accept our homage to create the gifts of life and yajnic development, and take the honoured seat in the assembly.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told again.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person! you (occupy) be seated in a good assembly, for the attainment of knowledge and other good virtues and for giving what is worth giving. Therefore, glorifying God and being a liberal donor come to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Where great scholars desire to promote knowledge, there all enjoy happiness.
Foot Notes
(बर्हिषि ) उत्तमार्यां सभायाम् । बर्हिषि इति महन्नाम (NG 3, 3) तस्माद् महति सभास्थाने। वृह-वृद्धौ इति धातोः। = In a good assembly. (हव्यदातये ) दातव्यदानाय । हु-दानादनयोः आदाने च (जु०) अत्र दानार्थमादाय व्याख्यानम् । = For giving what is worth giving.
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