ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 30
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वं नः॑ पा॒ह्यंह॑सो॒ जात॑वेदो अघाय॒तः। रक्षा॑ णो ब्रह्मणस्कवे ॥३०॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । पा॒हि॒ । अंह॑सः । जात॑ऽवेदः । अ॒घ॒ऽय॒तः । रक्ष॑ । नः॒ । ब्र॒ह्म॒णः॒ । क॒वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नः पाह्यंहसो जातवेदो अघायतः। रक्षा णो ब्रह्मणस्कवे ॥३०॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। पाहि। अंहसः। जातऽवेदः। अघऽयतः। रक्ष। नः। ब्रह्मणः। कवे ॥३०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 30
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजविद्वद्भ्यां किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे जातवेदो ब्रह्मणस्कवे ! त्वं नोंऽहसः पाहि नोऽघायतो रक्षा ॥३०॥
पदार्थः
(त्वम्) (नः) अस्मान् (पाहि) (अंहसः) अधर्माचरणात् (जातवेदः) जातविद्य (अघायतः) आत्मनोऽघमाचरतः (रक्षा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (ब्रह्मणः) वेदस्य (कवे) वक्तः ॥३०॥
भावार्थः
हे राजन् विद्वन् वा ! युवामस्मानधर्माचरणादधर्म्ममाचरतश्च पृथग्रक्ष्य सुखं वर्धयतम् ॥३०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और विद्वान् क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (जातवेदः) विद्या से युक्त (ब्रह्मणः) वेद के (कवे) कहनेवाले ! (त्वम्) आप (नः) हम लोगों की (अंहसः) अधर्माचरण से (पाहि) रक्षा कीजिये और (नः) हम लोगों की (अघायतः) अपने पाप करते हुए से (रक्षा) रक्षा कीजिये ॥३०॥
भावार्थ
हे राजन् वा विद्वन् ! आप दोनों हम लोगों का अधर्म्माचरण और अधर्म्म का आचरण करते हुए से अलग करके सुख को बढ़ाइये ॥३०॥
विषय
पापों और पापियों से प्रजा का पालन ।
भावार्थ
हे ( जातवेदः ) ज्ञानों और ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! हे (ब्रह्मणः कवे ) वेद के उपदेश देने हारे विद्वन् ! या हे ( कवे ) क्रान्तदर्शिन् ! ( त्वं ) तू ( नः ) हमें और ( नः ब्रह्मणः ) हमारे विद्वान् ब्राह्मणों को ( अंहसः पाहि ) पाप से बचा और ( अघायतः ) हम पर अत्याचार करने वाले से भी ( नः ) हमारी ( रक्ष ) रक्षा कर । इति षड्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
ज्ञान व पाप-निराकरण
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमें (अंहसः) = पाप से (पाहि) = बचाइये। आप हमें ज्ञान देकर शुद्ध जीवनवाला बनाइये। [२] हे (ब्रह्मणस्कवे) = इन ज्ञान की वाणियों के शब्दयितः प्रभो! आप (नः) = हमें (अघायत:) = हमारे अघ की कामनावाले, पाप व कष्ट की कामनावाले, सब शत्रुओं से रक्षा रक्षित करिये। आपकी इन ज्ञान वाणियों को सुनते हुए हम सब पापों से ऊपर उठ जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान देकर वे सर्वत्र प्रभु हमें पापों से बचाएँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा किंवा विद्वान, तुम्ही दोघे आम्हाला अधर्माचरण व अधर्माचरणी यांच्यापासून वेगळे करून सुख वाढवा. ॥ ३० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Save us, O lord omnipresent in existence, from sin and evil. O lord of omniscient vision, O voice of divinity, give us the ultimate protection and security in our creative endeavours.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king and an enlightened person do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned lecturer of the Veda, preserve (protect) us from the person who desires to do a sinful act and the sin or the unrighteous conduct.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king or enlightened person ! keep us away from an un-righteous conduct and the person doing the unrighteous acts and thus increase our happiness.
Foot Notes
(ब्रह्मणस्कवे ) वेदस्य वक्ता: वेदो वे ब्रह्म (जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मणे 4, 11, 4) कु-शब्दे (अदा० ) तस्मात् कविः-वक्ता (अंहः) अमेर्हुक् च ( उणादिकोबे 4, 213 ) = Lecturer or preacher of the Veda. (अंहसः) अ धर्माचरणान् । अय-गतौ । अत्र गतेः प्राप्त्यर्थग्रहणम् कृत्वा अमन्ति प्राप्नुवन्ति दुःखं येन तत् अंहः पापान् पापमेव अधर्माचरणम् = From unrighteous act.
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