ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 26
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
क्रत्वा॒ दा अ॑स्तु॒ श्रेष्ठो॒ऽद्य त्वा॑ व॒न्वन्त्सु॒रेक्णाः॑। मर्त॑ आनाश सुवृ॒क्तिम् ॥२६॥
स्वर सहित पद पाठक्रत्वा॑ । दाः । अ॒स्तु॒ । श्रेष्ठः॑ । अ॒द्य । त्वा॒ । व॒न्वन् । सु॒ऽरेक्णाः॑ । मर्तः॑ । आ॒ना॒श॒ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रत्वा दा अस्तु श्रेष्ठोऽद्य त्वा वन्वन्त्सुरेक्णाः। मर्त आनाश सुवृक्तिम् ॥२६॥
स्वर रहित पद पाठक्रत्वा। दाः। अस्तु। श्रेष्ठः। अद्य। त्वा। वन्वन्। सुऽरेक्णाः। मर्तः। आनाश। सुऽवृक्तिम् ॥२६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 26
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विदुषा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
श्रेष्ठः सुरेक्णा मर्त्तोऽद्य क्रत्वा सुवृक्तिमानाश त्वा वन्वन् सुख्यस्तु त्वं विद्यां दाः ॥२६॥
पदार्थः
(क्रत्वा) प्रज्ञया कर्म्मणा वा (दाः) यो ददाति (अस्तु) (श्रेष्ठः) धर्म्यगुणकर्म्मस्वभावातिशययुक्तः (अद्य) (त्वा) त्वाम् (वन्वन्) सम्भजन् (सुरेक्णाः) शोभनं रेक्णः धनं यस्य सः। रेक्ण इति धननाम। (निघं०२.१०) (मर्त्तः) मनुष्यः (आनाश) व्याप्नुयात् (सुवृक्तिम्) सुष्ठु व्रजन्ति दुःखानि यया ताम् ॥२६॥
भावार्थः
त एवोत्तमा गणनीया ये विज्ञानं प्रयच्छन्ति ॥२६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(श्रेष्ठः) धर्मयुक्त गुण कर्म्म और स्वभाव से अतिशय युक्त (सुरेक्णाः) सुन्दर धनवाला (मर्त्तः) मनुष्य (अद्य) आज (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म्म से (सुवृक्तिम्) उत्तम प्रकार जाते हैं, दुःख जिसके द्वार उसको (आनाश) व्याप्त हो और (त्वा) आप का (वन्वन्) सेवन करता हुआ सुखी (अस्तु) हो और आप विद्या के (दाः) देनेवाले होओ ॥२६॥
भावार्थ
वे ही उत्तम जन गणनीय हैं, जो विज्ञान को देते हैं ॥२६॥
विषय
आत्मसमर्पक की ब्रह्मप्राप्ति ।
भावार्थ
हे राजन् ! हे प्रभो ! जो पुरुष ( अद्य ) आज, तेरे प्रति ( क्रत्वा ) ज्ञान और कर्म से अपने को ( दाः ) प्रदान कर देता, तुझ पर अपने को न्योछावर कर देता है, वह ( त्वा वन्वन् ) तेरा भजन और सेवन करता हुआ ( श्रेष्ठः) सबसे श्रेष्ठ, विद्यावान्, और ( सुरेक्णः ) उत्तम धनवान् ( अस्तु ) हो और वही ( मर्तः ) मनुष्य ( सुवृक्तिम् त्वाम् आनशे ) सुखपूर्वक दुःखों के छुड़ाने वाले तुझ को प्राप्त करता है वा ( सुवृक्तिम् आनशे ) उत्तम मार्ग को पाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
श्रेष्ठः सुरेक्णाः
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (कृत्वा) = यज्ञ आदि उत्तम कर्मों के द्वारा (त्वा) = आपका (वन्वन्) = सम्भजन [उपासन] करता हुआ, (दा:) = दानशील पुरुष (अद्य) = आज (श्रेष्ठः अस्तु) = प्रशस्त [उत्तम] जीवनवाला हो । यह (सुरेक्णाः) = उत्तम धनवाला है। धन के कारण यह विलास में न फँसकर यज्ञ आदि उत्तम कर्मों को करनेवाला बने । [२] (मर्तः) = यह कर्मों द्वारा आपकी उपासना करनेवाला मनुष्य (सुवृत्तिं आनाश) = शोभनतया पापवर्जन को व्याप्त करता है। वस्तुतः यह कर्मों में लगे रहना उनके जीवन को शुद्ध बनाये रखता है, अकर्मण्यता ही पाप का कारण बनती है। यह कर्मशील पुरुष सदा सुमार्ग से ही धन का अर्जन करता है।
भावार्थ
भावार्थ- यज्ञ आदि उत्तम कर्मों के द्वारा प्रभु का सम्भजन करनेवाला मनुष्य दानशील होता है, यह श्रेष्ठ जीवनवाला व उत्तम मार्ग से धन को कमानेवाला होता है। यह पापों से बचा रहता है।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान विज्ञान शिकवितात ते माननीय समजले जातात. ॥ २६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O lord, may the holy man of yajnic action and charity, generously giving, loving and offering homage in adoration to you, rise to eminence here and now, be master of noble wealth and follow the path of rectitude to ultimate freedom.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should an enlightened person do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May the man, possessing good wealth who with his intellect and acts, in case of misery and who is very much endowed with righteous virtues, actions and temperament and who serves you, enjoys happiness and may you impart knowledge to him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons only should be considered very good, who give good knowledge to the people.
Foot Notes
(सुरेक्णः) शोभनं रेवण: धनं यस्य सः । रेक्ण इति धननाम (NG 2, 10 ) = He who is possessor of good wealth i.e. earned honestly and by fair means. (सुवृक्तिम् ) सुष्ठु ब्रजन्ति दुःखानि येन । = The acts by which men get over miseries.
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