ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तव॒ प्र य॑क्षि सं॒दृश॑मु॒त क्रतुं॑ सु॒दान॑वः। विश्वे॑ जुषन्त का॒मिनः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । प्र । य॒क्षि॒ । स॒म्ऽदृश॑म् । उ॒त । क्रतु॑म् । सु॒ऽदान॑वः । विश्वे॑ । जु॒ष॒न्त॒ । का॒मिनः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव प्र यक्षि संदृशमुत क्रतुं सुदानवः। विश्वे जुषन्त कामिनः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठतव। प्र। यक्षि। सम्ऽदृशम्। उत। क्रतुम्। सुऽदानवः। विश्वे। जुषन्त। कामिनः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरध्यापकाऽध्येतारः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! ये सुदानवो विश्वे कामिनो जनास्तव सन्दृशमुत क्रतुं जुषन्त तांस्त्वं तद्दानेन प्र यक्षि ॥८॥
पदार्थः
(तव) विदुषः (प्र) (यक्षि) यज सङ्गमय (सन्दृशम्) सम्यग्दर्शनम् (उत) (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्म्म वा (सुदानवः) शोभनदानाः (विश्वे) सर्वे (जुषन्त) सेवन्ते (कामिनः) कामयितुं शीलाः ॥८॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! यथा विद्याकामा भवतः कामयन्ते तथैव भवन्तो विद्यार्थिनः कामयन्ताम् ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अध्यापक और पढ़नेवाले परस्पर कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जो (सुदानवः) श्रेष्ठ दान के दाता (विश्वे) सब (कामिनः) कामना करनेवाले जन (तव) विद्वान् आपके (सन्दृशम्) अच्छे दर्शन (उत) और (क्रतुम्) बुद्धि वा कर्म्म का (जुषन्तु) सेवन करते हैं, उन का आप उसके दान से (प्र, यक्षि) मेल कराइये ॥८॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! जैसे विद्या की कामना करनेवाले आप लोगों की कामना करते हैं, वैसे ही आप लोग विद्यार्थियों की कामना करो ॥८॥
विषय
अनुकरणीय प्रभु ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! (सु-दानवः ) उत्तम ज्ञान धन आदि दान देने वा लेने हारे और ( विश्वे ) समस्त ( कामिनः ) उत्तम कामनावान् पुरुष ( तव संदृशम् ) तेरे सम्यक् तत्वदर्शन, यथार्थ ज्ञान ( उत ) और ( क्रतुम् ) कर्म को भी ( जुषन्त ) प्रेम से सेवन करते हैं । तू उनको ( प्र यक्षि ) ज्ञान और कर्म का उपदेश प्रदान करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
सन्दृशं क्रतुम्
पदार्थ
[१] हे अग्ने, परमात्मन्! मैं (तव) = आपके (सन्दृशम्) = सम्यग् दर्शनीय व सब के भासक [प्रकाशक] तेज को (प्रयक्षि) = पूजित करता हूँ। (उत) = और (सुदानवः) = सम्यक् शत्रुओं का [दाप् लवने] छेदन करनेवाले आपके (क्रतुम्) = शक्ति व प्रज्ञान का मैं पूजन करता हूँ। [२] (विश्वे) = सब (कामिनः) = विविध कामनाओं से प्रेरित होनेवाले पुरुष आपको ही (जुषन्त) = प्रीतिपूर्वक उपासित करते हैं। आप से ही उनकी कामनाएँ पूर्ण की जाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के सम्यग् दर्शनीय तेज का व शक्ति और प्रज्ञान का पूजन करते हुए हम भी उस तेज शक्ति व प्रज्ञान को प्राप्त करें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो! जशी विद्येची कामना करणारे (विद्यार्थी) तुमची कामना करतात तशीच तुम्ही विद्यार्थ्यांची कामना करा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All generous and charitable people inspired with love and desire yearn for a vision of your presence and holy action. O lord, let us have the vision and let us join all such charitable acts.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the teachers and the taught deal with one another is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person ! all those good donors who desiring to acquire knowledge to see you well and to have your good intellect or actions, give them and oblige.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons ! as the persons desiring to acquire knowledge long for you, similarly you should also desire (to have ) the students.
Foot Notes
(यक्षि ) यज-सङ्गमय । यज धातोस्त्रिष्वर्थेषु सङ्गतिकरणार्थमादाय व्याख्या | = Unite.
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