ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - आर्च्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
त्वाम॑ग्ने स्वा॒ध्यो॒३॒॑ मर्ता॑सो दे॒ववी॑तये। य॒ज्ञेषु॑ दे॒वमी॑ळते ॥७॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । मर्ता॑सः । दे॒वऽवी॑तये । य॒ज्ञेषु॑ । दे॒वम् । ई॒ळ॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने स्वाध्यो३ मर्तासो देववीतये। यज्ञेषु देवमीळते ॥७॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। सुऽआध्यः। मर्तासः। देवऽवीतये। यज्ञेषु। देवम्। ईळते ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने विद्वन् ! यथा स्वाध्यो मर्त्तासो देववीतये यज्ञेषु त्वां देवमीळते तथा वयं प्रशंसेम ॥७॥
पदार्थः
(त्वाम्) पूर्णविद्यमाप्तम् (अग्ने) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशात्मन् (स्वाध्यः) ये सुष्ठु समन्ताद् ध्यायन्ति (मर्त्तासः) मनुष्याः (देववीतये) विद्यादिदिव्यगुणप्राप्तये (यज्ञेषु) अध्यापनाध्ययनोपदेशाख्येषु व्यवहारेषु (देवम्) विज्ञानप्रदम् (ईळते) स्तुवन्ति ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्यार्थिभिर्विद्याप्राप्तये विद्वांसः सेवनीयाः। यथा सृष्टिपदार्थेष्वग्निः प्रशंसितोऽस्ति तथैव मनुष्येषु धार्मिका विद्वांसः सन्तीति वेद्यम् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्या और विनय से प्रकाशात्मा विद्वन् ! जैसे (स्वाध्यः) उत्तम प्रकार चारों ओर से ध्यान करनेवाले (मर्त्तासः) मनुष्य (देववीतये) विद्या आदि श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिये (यज्ञेषु) पढ़ाने पढ़ने और उपदेश नामक व्यवहारों में (त्वाम्) पूर्ण विद्यायुक्त यथार्थवक्ता आप (देवम्) विज्ञान के देनेवाले की (ईळते) स्तुति करते हैं, उस प्रकार से हम लोग प्रशंसा करें ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्यार्थियों को चाहिये कि विद्या की प्राप्ति के लिये विद्वानों का सेवन करें और जैसे सृष्टि के पदार्थों में अग्नि प्रशंसित है, वैसे ही मनुष्यों में धार्मिक विद्वान् हैं, यह जानना चाहिये ॥७॥
विषय
स्तुत्य प्रभु । अनुकरणीय प्रभु ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! ( देव-वीतये ) शुभ गुणों को प्राप्त करने के लिये ( यज्ञेषु ) यज्ञों, सत्संगों में ( स्वाध्यः ) उत्तम रीति से ध्यान और आधान करने वाले ( मर्त्तासः ) मनुष्य ( त्वां देवं ईडते ) तुझ देव, दाता की स्तुति करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु ध्यान से दिव्य गुणों की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (त्वाम्) = आपका (स्वाध्यः) = उत्तमता से ध्यान करनेवाले (मर्तासः) = मनुष्य (देववीतये) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये होते हैं। वस्तुतः जिसका निरन्तर ध्यान करेंगे, वैसे ही तो बनेंगे। उस (परब्रह्म) = का ध्यान करते हुए हम क्यों न देव बनेंगे ? [२] इसलिए उत्तम स्तोता लोग (यज्ञेषु) = यज्ञात्मक कर्मों के अन्दर (देवम्) = उस प्रकाशमय प्रभु का (ईडते) = उपासन करते हैं। उन यज्ञों को वस्तुतः वे प्रभु कृपा से ही पूर्ण होता हुआ जानते हैं। परिणामतः उन्हें इन उत्तम कर्मों का गर्व नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम ध्याता लोग प्रभु का ध्यान करते हुए दिव्य गुणों को प्राप्त करते हैं। सब यज्ञों में उस देव का पूजन करते हुए उन यज्ञों को उस देव की शक्ति से होता हुआ जानते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्यार्थ्यांनी विद्याप्राप्तीसाठी विद्वानाचा स्वीकार करावा. जसा सृष्टीतील पदार्थांमध्ये अग्नी स्तुती करण्यायोग्य असतो, तसेच माणसांमध्ये धार्मिक विद्वान असतात हे जाणले पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, leading light of the world, learned mortals worship and adore you, refulgent giver of abundance, in corporate acts of creativity and development for the achievement of divine gifts of success and enlightenment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person endowed with true knowledge and humility! as men of meditative nature admire you in the Yajnas (consisting of the study, teaching and preaching) for the attainment of the divine virtues, so let us also praise you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The students should serve the enlightened persons for acquiring knowledge. All should know that as among the objects of the creation, Agni (in the form of fire and electricity) is praised on account of its attributes, so among men these righteous enlightened persons are most admirable.
Foot Notes
(स्वाध्य:) य सुष्ठु समन्ताद्ध्यायन्ति । सु + आ + ध्ये. चिन्तायाम् (भ्वा० ) । Those who meditate well on all sides. (यज्ञ ेषु) अध्यापनाध्यायनोपदेशाख्येषु व्यवहारेषु । (यज्ञ ेषु) व्यवहारेषु । यज- देवपूजा सङ्गतिकरणदानेषु (भ्वा० ) । विद्यादानम् अध्यापनमुपदेशनं च विद्वद्विः सङ्गतिकरण द्वारंव अध्ययनं संभवति नान्यथा पंचमहायज्ञ षु प्रथमो ब्रह्मयज्ञः सर्व स्वाध्यायो वै ब्रह्मयज्ञ: ( Stph 17, 5,6, 2) अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः इति मनु: ( 3, 70 ) स्वेकीये धर्मशास्त्रे | = In the dealings of the study, teaching and preaching.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal