ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 36
ब्रह्म॑ प्र॒जाव॒दा भ॑र॒ जात॑वेदो॒ विच॑र्षणे। अग्ने॒ यद्दी॒दय॑द्दि॒वि ॥३६॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ । प्र॒जाऽव॑त् । आ । भ॒र॒ । जात॑ऽवेदः॑ । विऽच॑र्षणे । अग्ने॑ । यत् । दी॒दय॑त् । दि॒वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्म प्रजावदा भर जातवेदो विचर्षणे। अग्ने यद्दीदयद्दिवि ॥३६॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्म। प्रजाऽवत्। आ। भर। जातऽवेदः। विऽचर्षणे। अग्ने। यत्। दीदयत्। दिवि ॥३६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 36
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे जातवेदो विचर्षणेऽग्ने ! यद्दिवि दीदयत् तेन प्रजावद् ब्रह्माऽऽभर ॥३६॥
पदार्थः
(ब्रह्म) धनमन्नं वा (प्रजावत्) प्रजा विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (आ) (भर) (जातवेदः) जातवित्त (विचर्षणे) विचक्षण (अग्ने) अग्निरिव गृहस्थ (यत्) ज्योतिः (दीदयत्) द्योतयति (दिवि) प्रकाशे ॥३६॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यदग्नौ यत्सूर्य्ये यद्विद्युति च तेजोऽस्ति तद्विज्ञानेन धनधान्यमुन्नेयम् ॥३६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (जातवेदः) धन से युक्त (विचर्षणे) बुद्धिमान् (अग्ने) अग्नि के समान गृहस्थ ! (यत्) जो ज्योति (दिवि) प्रकाश में (दीदयत्) प्रकाशित करती है, उससे (प्रजावत्) प्रजा में विद्यमान जिसमें उस (ब्रह्म) धन वा अन्न को (आ, भर) सब प्रकार से धारण वा पोषण करिये ॥३६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो अग्नि में, जो सूर्य्य में और जो बिजुली में तेज है, उसके विज्ञान से धन और धान्य की उन्नति करिये ॥३६॥
विषय
धन, ज्ञानप्रद जातवेदा का स्वरूप ।
भावार्थ
हे ( जातवेदः ) उत्पन्न पदार्थों के लाभ करने वाले, वा धनसम्पन्न ! हे ( विचर्षणे ) विविध प्रजाओं के देखने हारे ! स्वामिन् ! ( यत् ) जो ( दिवि ) पृथिवी पर वा प्रकाश में ( दीदयत् ) चमकता है या जिससे मनुष्य पृथिवी में, वा ज्ञान, और कान्ति में चमके, ऐसा (प्रजा-वत् ) प्रजा, पुत्र शिष्यादि से युक्त ( ब्रह्म ) वेद ज्ञान, अन्न और धन ( आ भर ) प्राप्त कर और अन्यों को भी प्राप्त करा ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
प्रजावद् ब्रह्म
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ, (विचर्षणे) = विशेषरूप से सब प्रजाओं के द्रष्टा, सबका ध्यान करनेवाले प्रभो ! (प्रजावत्) = प्रकृष्ट विकासवाले (ब्रह्म) = ज्ञान को (आभर) = हमें सर्वथा प्राप्त कराइये । उस ज्ञान को दीजिये जो हमारे सब प्रकार से विकास का कारण बने । [२] हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो ! हम आपके अनुग्रह से उस ज्ञान को प्राप्त करें, (यत्) = जो (दिवि दीदयत्) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में दीप्ति का कारण होता है। जैसे आकाशस्थ सूर्य सर्वत्र प्रकाश व प्राणशक्ति का सञ्चार करता है, इसी प्रकार ये प्रभु हमारे मस्तिष्क में ज्ञान सूर्य को उदित करके हमारे जीवनों को प्रकाशमय व विकसित शक्तियोंवाला बनाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें उस ज्ञान को प्राप्त कराएँ जो कि हमारे लिये सब शक्तियों के विकास का कारण बने ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! अग्नीमध्ये, सूर्यामध्ये व विद्युतमध्ये जे तेज आहे त्यांचे विज्ञान जाणून धनधान्याची उन्नती करा. ॥ ३६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord all knowing, all watching, who shine in the light of the sun, bless us with the food of life that sustains the children of the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wealthy, extra-ordinary house holder! shining like the fire, bring to us good wealth or food which is acquired with the knowledge of that which light illuminates in heaven and in other places, and which is accompanied by heroic progeny.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should multiply wealth and food materials by the knowledge of that luster which is in the fire, in the sun and in electricity.
Foot Notes
(ब्रह्म) धनमन्नं वा । ब्रह्म इति धननाम (NG 2, 10) ब्रह्म इति अन्ननाम (NG 2, 7 ) = Wealth or food. (विचर्षणे) विश्वक्षण = Extra-ordinary. (अग्नि) अग्निरिव गृहस्थ। = O householder who are like the fire.
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