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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 34
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निर्वृ॒त्राणि॑ जङ्घनद्द्रविण॒स्युर्वि॑प॒न्यया॑। समि॑द्धः शु॒क्र आहु॑तः ॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । वृ॒त्राणि॑ । ज॒ङ्घ॒न॒त् । द्र॒वि॒ण॒स्युः । वि॒प॒न्यया॑ । सम्ऽइ॑द्धः । शु॒क्रः । आऽहु॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद्द्रविणस्युर्विपन्यया। समिद्धः शुक्र आहुतः ॥३४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। वृत्राणि। जङ्घनत्। द्रविणस्युः। विपन्यया। सम्ऽइद्धः। शुक्रः। आऽहुतः ॥३४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 34
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्नुद्यमिन् ! यथा शुक्रः समिद्धोऽग्निर्वृत्राणि जङ्घनत् तथा द्रविणस्युराहुतस्त्वं विपन्यया वृत्राणि प्राप्नुहि ॥३४॥

    पदार्थः

    (अग्निः) विद्युत् (वृत्राणि) धनानि। वृत्रमिति धननाम। (निघं०२.१०) (जङ्घनत्) भृशं हन्ति प्राप्नोति (द्रविणस्युः) आत्मनो द्रविणमिच्छुः (विपन्यया) विशिष्टोद्यमेन (समिद्धः) प्रदीप्तः (शुक्रः) आशुकारी (आहुतः) समन्तात् कृतसत्कारः ॥३४॥

    भावार्थः

    ये सततमुद्यमं कुर्वन्ति ते दारिद्र्यं घ्नन्ति ॥३४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! उद्योगवाले जैसे (शुक्रः) शीघ्रकारिणी (समिद्धः) प्रदीप्त (अग्निः) बिजुली (वृत्राणि) धनों को (जङ्घनत्) अत्यन्त प्राप्त होती है, वैसे (द्रविणस्युः) अपने धन की इच्छा करनेवाले (आहुतः) सब प्रकार सत्कार को प्राप्त आप (विपन्यया) विशिष्ट उद्यम से धनों को प्राप्त होओ ॥३४॥

    भावार्थ

    जो निरन्तर उद्यम करते वे दारिद्र्य का नाश करते हैं ॥३४॥

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    विषय

    जल सूर्यवत् राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जल जिस प्रकार (वृत्राणि जंघनत् ) बढ़ते मेघों को प्राप्त करता है और जिस प्रकार ( अग्निः ) सूर्य या विद्युत् ( वृत्राणि जंघनत् ) मेघों पर प्रहार करता है, उसी प्रकार हे (शुक्र) शुद्ध कान्तिमन् ! शीघ्र कार्य करने हारे ! तेजस्विन् ! कर्मकुशल ! तू ( समिद्धः ) खूब प्रदीप्त, तेजस्वी और ( आहुत:) आहुति प्राप्त अग्नि के तुल्य प्रजाजनों द्वारा संवर्धित, पुष्ट और आदर सत्कार पाकर तथा (आहुतः = आहूतः ) शत्रुओं द्वारा ललकारा जाकर (विपन्यया) विशेष व्यवहार कुशल, वार्त्ता, वाणी से ( द्रविणस्युः ) धन की कामना करता हुआ ( वृत्राणि जंघनत्) धनों को प्राप्त करे और विध्नकारी दुष्ट पुरुषों का नाश करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    द्रविणस्युः - आहुतः

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु ! (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (जङ्घनत्) = विनष्ट करते हैं। वस्तुतः प्रभु की उपस्थिति में कामदेव का तो (विध्वंस) = हो जाता है। वे प्रभु वृत्रों का विनाश करके हमारे लिये (द्रविणस्युः) = द्रविणों, धनों को, ज्ञानधन को चाहते हैं । [२] हमारे लिये ज्ञान को प्राप्त करानेवाले वे प्रभु (विपन्यया) = विशिष्ट स्तुति के द्वारा (समिद्धः) = हृदयदेश समिद्ध किये जाते हैं। (शुक्रः) = वे प्रभु दीप्त हैं। हमारे हृदयों में समिद्ध होने पर उन हृदयों को दीप्त करनेवाले हैं । (आहुतः) = [ आ हुतं यस्या] समन्तात् प्रभु का होतृत्व व्यक्त हो रहा है। सर्वत्र जीवहित के लिये प्रभु के दान विद्यमान हैं। इन सब वस्तुओं का ठीक प्रयोग करते हुए हम जीवनयात्रा को पूर्ण करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे वासनारूप शत्रुओं को नष्ट करते हैं और हमारे लिये ज्ञानधनों को प्राप्त कराते हैं। विशिष्ट स्तुति के द्वारा हृदय में समिद्ध हुए-हुए वे प्रभु हमें दीप्त करते हैं। इन प्रभु की ही दानक्रियाएँ सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सतत उद्योग करतात, ते दारिद्र्याचा नाश करतात. ॥ ३४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, leading light and ruler of the world, bright, pure and purifying, invoked, invited and lighted in the seat of yajna, keen on wealth, honour and excellence with self-approbation and public exaltation, should destroy the evils and endeavour to raise the power and prosperity of the human nation.

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