ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 46
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
वी॒ती यो दे॒वं मर्तो॑ दुव॒स्येद॒ग्निमी॑ळीताध्व॒रे ह॒विष्मा॑न्। होता॑रं सत्य॒यजं॒ रोद॑स्योरुत्ता॒नह॑स्तो॒ नम॒सा वि॑वासेत् ॥४६॥
स्वर सहित पद पाठवी॒ती । यः । दे॒वम् । मर्तः॑ । दु॒व॒स्येत् । अ॒ग्निम् । ई॒ळी॒त॒ । अ॒ध्व॒रे । ह॒विष्मा॑न् । होता॑रम् । स॒त्य॒ऽयज॑म् । रोद॑स्योः । उ॒त्ता॒नऽह॑स्तः । न॒म॒सा । वि॒वा॒से॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वीती यो देवं मर्तो दुवस्येदग्निमीळीताध्वरे हविष्मान्। होतारं सत्ययजं रोदस्योरुत्तानहस्तो नमसा विवासेत् ॥४६॥
स्वर रहित पद पाठवीती। यः। देवम्। मर्तः। दुवस्येत्। अग्निम्। ईळीत। अध्वरे। हविष्मान्। होतारम्। सत्यऽयजम्। रोदस्योः। उत्तानऽहस्तः। नमसा। विवासेत् ॥४६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 46
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः क उपासनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यो हविष्मानुत्तानहस्तो मर्त्तो वीत्यध्वरे यं होतारं सत्ययजं देवमग्निं दुवस्येत् रोदस्योर्नमसाऽऽविवासेत् तद्वत्तं परमात्मानं यूयमीळीत ॥४६॥
पदार्थः
(वीती) कामनया (यः) (देवम्) कमनीयम् (मर्त्तः) मनुष्यः (दुवस्येत्) सेवेत (अग्निम्) पावकमिव स्वप्रकाशं परमात्मानम् (ईळीत) प्रशंसत (अध्वरे) अहिंसादिलक्षणे योगे (हविष्मान्) बहूनि हवींषि दानानि विद्यन्ते यस्य सः (होतारम्) दातारम् (सत्ययजम्) यस्सत्यं यजति सङ्गमयति तम् (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः (उत्तानहस्तः) उत्तानावुपरिस्थौ हस्तौ यस्य सः (नमसा) सत्कारेण (आ) समन्तात् (विवासेत्) सेवेत ॥४६॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यं जगदीश्वरं योगिन उपासते तं यूयमप्युपाध्वम् ॥४६॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को किस की उपासना करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (यः) जो (हविष्मान्) बहुत दान करनेवाला (उत्तानहस्तः) ऊपर स्थित हाथ जिसके ऐसा (मर्त्तः) मनुष्य (वीती) कामना से (अध्वरे) अहिंसा आदि लक्षणयुक्त योग में जिस (होतारम्) दान करनेवाले (सत्ययजम्) सत्य प्राप्त करानेवाले (देवम्) मनोहर (अग्निम्) अग्नि के सदृश स्वयं प्रकाशित परमात्मा का (दुवस्येत्) सेवन करे और (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के (नमसा) सत्कार से (आ, विवासेत्) अच्छे प्रकार सेवन करे, उस परमात्मा की आप लोग (ईळीत) प्रशंसा करो ॥४६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर की योगी जन उपासना करते हैं, उसकी आप लोग भी उपासना करो ॥४६॥
विषय
सर्वोच्च की आदर पूजा करने का प्रकार ।
भावार्थ
( यः ) जो ( मर्त्तः ) मनुष्य ( वीती ) कामना से ( देव ) उत्तम कामना युक्त, तेजोमय, सर्वसुखदाता, प्रभु की ( दुवस्येत् ) सेवा करता है, और जो पुरुष ( हविष्मान् ) अन्नादि उत्तम सामग्री से सम्पन्न होकर (अध्वरे अग्निम् ) यज्ञ में विद्यमान अग्नि के तुल्य अहिंसायोग्य उत्तम कर्मों में ज्ञानवान् तेजस्वी पुरुष का ( ईडीत ) आदर सत्कार करता है वह ( रोदस्योः ) आकाश और पृथिवी के तुल्य माता पिताओं के भी ऊपर विद्यमान ( होतारं ) ज्ञान दान करने वाले ( सत्य-यजं ) सज्जनों के उचित सत्य आचार, सत्य न्याय के देने वाले आचार्य और प्रभु को ( उत्तानहस्तः ) ऊपर हाथ उठाकर ( नमसा ) आदरपूर्वक झुक कर ( आविवासेत् ) उसकी सेवा करे, उसका मान पूजा करे । गुरु, राजा, न्यायपति, पिता और ईश्वर सबके लिये समान रूप से आदर करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
अग्रिमीडीत अध्वरे
पदार्थ
[१] (यः मर्तः) = जो मनुष्य (वीती) = अज्ञानान्धकार के ध्वंस के हेतु (देवम्) = उस प्रकाशमय प्रभु को (दुवस्येत्) = पूजित करे, उस प्रभु की पूजने की कामना करे, वह (अध्वरे) = हिंसारिहत कर्मोंवाले जीवन यज्ञ में (हविष्मान्) = प्रशस्त हविवाला होकर (अग्निं ईडीत) = उस अग्रेणी प्रभु का स्तवन करें। प्रभु का स्तवन यज्ञों द्वारा ही होता है। यज्ञ ही प्रभु को दृश्य स्तवन हैं । [२] उस (होतारम्) = सब कुछ देनेवाले, (सत्ययजम्) = सत्य का हमारे साथ संगमन करनेवाले प्रभु को (रोदस्योः उत्तानहस्तः) = द्यावापृथिवी में, मस्तिष्क व शरीर में, ऊपर हाथवाला, अर्थात् मस्तिष्क व शरीर के दृष्टिकोण से उन्नत हुआ-हुआ व्यक्ति (नमसा) = नमन के द्वारा (विवासेत्) = पूजा करे। प्रभु का पूजन यही है कि हम शरीर को शक्तिशाली बनाएँ, मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त करें और नमन की वृत्तिवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हम त्याग की वृत्तिवाले बनकर प्रभु का पूजन करते हैं। प्रभु का पुजारी वह है जो शरीर को शक्तिशाली और मस्तिष्क को ज्ञान - सम्पन्न बनाकर नम्रता का धारण करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्या जगदीश्वराची योगी लोक उपासना करतात त्याची तुम्हीही उपासना करा. ॥ ४६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The mortal, who, bearing holy materials of yajna with love and reverence, serves and worships Agni, generous and brilliant yajaka of the universe abiding and operative in the unity of cosmic law and universal truth, and who prays to the lord with folded hands raised in surrender and supplication, would shine over earth and heaven with divine favour and joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should be adored by men is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons ! the mortal, who with the desire of attaining peace and bliss, being a liberal donor worships in the Yoga, consisting of Ahinsa-non-violence, truth and other virtues, self refulgent God, who is most desirable, uniting people with truth (through the Vedas), Giver of true happiness and pervading the heaven and earth, with uplifted or folded hands and with reverence, so you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should also ever worship that God whom the Yogis adore or meditate upon.
Foot Notes
(दुबस्येत् ) सेवेत् । दुवस्यति परिचरण कर्मा (NKT 3, 5 ) परिचरणं सेवा। = Serve or adore. (अध्वरे ) अहिंसादि लक्षवे योगे । (अध्वरे ) ध्वरति हिंसा कर्मा । तत्प्रतिषधा: - योगस्य प्रथमाङ्ग वमा: अहिंसा-सत्यत्त्तेय ब्रह्मचर्यं परिग्रहा यमः (योग दर्शने) = In the Yoga consisting of अहिंसा or non-violence, truth and Brahmacharya etc. (सत्ययनम्) यस्सत्यं यजतिसङ्गमेयति तम् यज-देवपूजासङ्गति करणदानेषु (भ्वा० ) अवसङ्गतिकरणार्थः = Who unites with the truth (through the Vedas) (वीती) कामनया । (वीती) वी-गतिव्याप्ति प्रजन कान्त्यसन खादमेषु (अ० ) कान्तिः - कामना |= With desire.
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