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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 39
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    य उ॒ग्रइ॑व शर्य॒हा ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ न वंस॑गः। अग्ने॒ पुरो॑ रु॒रोजि॑थ ॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । उ॒ग्रःऽइ॑व । श॒र्य॒ऽहा । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः । न । वंस॑ऽगः । अग्ने॑ । पुरः॑ । रु॒रोजि॑थ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उग्रइव शर्यहा तिग्मशृङ्गो न वंसगः। अग्ने पुरो रुरोजिथ ॥३९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। उग्रःऽइव। शर्यऽहा। तिग्मऽशृङ्गः। न। वंसऽगः। अग्ने। पुरः। रुरोजिथ ॥३९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 39
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने यस्त्वं वंसगः शर्यहा तिग्मशृङ्गो न शत्रूणां पुर उग्रइव रुरोजिथ तं वयं सत्कुर्याम ॥३९॥

    पदार्थः

    (यः) (उग्रइव) तेजस्वीव (शर्यहा) हन्तव्यहन्ता (तिग्मशृङ्गः) तिग्मानि तीव्राणि शृङ्गाणीव किरणा यस्य सूर्य्यस्य सः (न) (वंसगः) यो वंसं सम्भजनीयं व्यवहारं गच्छति सः (अग्ने) (पुरः) पुरस्तात् (रुरोजिथ) भनक्षि ॥३९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये राजादयोऽधिकारिणः सूर्य्य इव तेजस्विनस्स्युस्ते शत्रून् विजेतुं शक्नुयुः ॥३९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी (यः) जो आप (वंसगः) सेवन करने योग्य व्यवहार को प्राप्त होने और (शर्यहा) मारने योग्य को मारनेवाले (तिग्मशृङ्गः) तीव्र शृङ्गों के सदृश किरणोंवाले सूर्य्य के (न) समान शत्रुओं के (पुरः) आगे (उग्रइव) तेजस्वी जन जैसे वैसे (रुरोजिथ) भग्न करते हो, उन आप का हम लोग सत्कार करें ॥३९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा आदि अधिकारी जन सूर्य्य जैसे वैसे तेजस्वी होवें, वे शत्रुओं के जीतने को समर्थ होवें ॥३९॥

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    विषय

    बलवान् राजा का शत्रुपुर भेदन ।

    भावार्थ

    (तिग्मशृगं वंसगः न ) जिस प्रकार तीखे सींगों वाला सांढ ( पुरः रुजति ) आगे के पदार्थों को तोड़ता है वा जिस प्रकार तीखी किरणों वाला सूर्य मेघादि के आवरण को छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार ( यः ) जो ( उग्रः इव ) प्रबल वायु के समान शर अर्थात् वाणों से मारने योग्य दुष्ट पुरुषों का नाशक होकर ( पुरः रुरोजिथ ) शत्रु के पुरों को तोड़ता है । वह तू ( वंसगः ) सेवनीय ऐश्वर्य को प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    आसुर पुरियों का विदारण

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यः) = जो आप (शर्यहा) = [शर्य-हा] वाणों से हनन करनेवाले शिकारी की (इव) = तरह (उग्रः) = उद्गूर्ण बलवाले हैं । (वंसगः) = वननीय [सुन्दर] गतिवाले वृषभ की तरह (तिग्मशृङ्गः) = अति तीक्ष्ण शृंगोंवाले हैं। अर्थात् जैसे एक वृषभ सींगों द्वारा मार्ग में विघ्नभूत चीजों को दूर करता हुआ आगे बढ़ता है, उसी प्रकार आप उपासक के मार्ग में विघ्नभूत बातों को दूर करनेवाले हैं। [२] हे अग्ने ! आप (पुरः) = शत्रु पुरियों को (रुरोजिथ) = भग्न करते हो । 'काम' नामक असुर इन्द्रियों में अपनी नगरी बनता है, इससे इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती है। क्रोध मन में अपना दुर्ग बनाकर मानस शान्ति को विनष्ट करता है। लोभ बुद्धि में स्थित होकर बुद्धि को समाप्त कर देता है। प्रभु इन असुरों की इन तीनों पुरियों को समाप्त करते हैं। उपासना का यही लाभ है ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु तेजस्वी शिकारी के समान शरों द्वारा काम, क्रोध व लोभ रूप पशुओं का संहार करते हैं। सुन्दर गतिवाले वृषभ के समान प्रभु इन सब मार्ग विघ्नों को दूर करते हैं। आसुर पुरियों का विदारण करते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे इत्यादी अधिकारीगण सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असतात ते शत्रूंना जिंकण्यास समर्थ असतात. ॥ ३९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord protector of life, destroyer of killer arrows like a fierce warrior, burning off negativities like the fierce rays of the sun, you destroy the strongholds of the enemies of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is again told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! shining like the fire, we honor you as you are of righteous dealing. slayer of the wicked persons who must be slayed, full of splendor like the sun whose rays are sharp like the horns of a bull and break the might of the foes being fierce to them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those kings and officers of the State conquer their enemies who are full of splendor like the sun.

    Foot Notes

    (शर्यहा) हन्तव्यहन्ता। (शर्य:) शु-हिन्सायाम् (ब्रह्मा) = The slayer of those who should be killed. (वंसग: ) यो वंसं सम्भजनीयं व्यवहारं गच्छति सः । वन संभक्तौ (भ्वा०) = Whose dealing or conduct is righteous. (तिग्मश्रृङ्ग) तिग्मानि तीव्राणि शृङ्गाणीव किरणा यस्य सूर्यस्यवः| = The sun whose rays are sharp like the horns (of a bull)

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