ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 42
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - साम्नीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ जा॒तं जा॒तवे॑दसि प्रि॒यं शि॑शी॒ताति॑थिम्। स्यो॒न आ गृ॒हप॑तिम् ॥४२॥
स्वर सहित पद पाठआ । जा॒तम् । जा॒तऽवे॑दसि । प्रि॒यम् । शि॒शी॒त॒ । अति॑थिम् । स्यो॒ने । आ । गृ॒हऽप॑तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ जातं जातवेदसि प्रियं शिशीतातिथिम्। स्योन आ गृहपतिम् ॥४२॥
स्वर रहित पद पाठआ। जातम्। जातऽवेदसि। प्रियम्। शिशीत। अतिथिम्। स्योने। आ। गृहऽपतिम् ॥४२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 42
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वद्भिः सद्गृहस्थाः सत्कर्त्तव्या इत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! जातवेदस्याऽऽजातं प्रियमतिथिमिव स्योने गृहपतिमा शिशीत ॥४२॥
पदार्थः
(आ) (जातम्) प्रसिद्धम् (जातवेदसि) जातविद्ये (प्रियम्) कमनीयम् (शिशीत) तीक्ष्णीकुरुत (अतिथिम्) अतिथिवद्वर्त्तमानम् (स्योने) सुखे (आ) (गृहपतिम्) गृहस्वामिनम् ॥४२॥
भावार्थः
ये व्याप्तां विद्युतं प्रज्वालयन्ति ते सर्वत्र विजयादिकमाप्नुवन्ति ॥४२॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों को चाहिये कि श्रेष्ठ गृहस्थों का सत्कार करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (जातवेदसि) प्राप्त हुई विद्या जिसमें उसमें (आ, जातम्) अच्छे प्रकार प्रसिद्ध (प्रियम्) प्रिय (अतिथिम्) अतिथि के समान वर्त्तमान को (स्योने) सुख में (गृहपतिम्) गृह के स्वामी को (आ, शिशीत) अच्छे प्रकार तीक्ष्ण करिये ॥४२॥
भावार्थ
जो व्याप्त बिजली को प्रज्वलित कराते हैं, वे सब स्थानों में विजय आदि को प्राप्त होते हैं ॥४२॥
विषय
उसका योग्य पद पर स्थापन ।
भावार्थ
(जात-वेदसि ) नाना विद्याओं में प्रसिद्ध गुरु के अधीन ( आ-जातम् ) सब प्रकार से विद्या से सम्पन्न (प्रियं) प्रिय (अतिथिम् ) अतिथि के समान पूज्य ( गृहपतिम् ) गृह के पालक के समान विद्वान् वा राजा को ( स्योने ) सुखकारी, पद वा आसन पर ( आ ) आदरपूर्वक स्थापित करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु को हृदय में स्थापित करना
पदार्थ
[१] (आजातम्) = समन्तात् प्रादुर्भूत, जिसकी महिमा सब ओर प्रकट हो रही है, उस (प्रियम्) = प्रीति को उत्पन्न करनेवाले (अतिथिम्) = हमारे हित के लिये निरन्तर गतिशील, (गृहपतिम्) = इस शरीर रूप गृह के रक्षक प्रभु को (जातवेदसि) = उत्पन्न हुआ है ज्ञान जिसमें उस (स्योने) = आनन्दमय हृदय में (आ शिशीत) = [शी] स्थापित करो। [२] हृदय को स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानोज्ज्वल बनाएँ, ध्यान के द्वारा प्रसादयुक्त करें। तभी यह हृदय प्रभु का अधिष्ठान बनने के योग्य होता है। हृदयस्थ प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करके हमारे इस शरीर गृह को सुरक्षित करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जे व्याप्त असलेली विद्युत प्रज्वलित करवितात ते सर्वत्र विजय प्राप्त करतात. ॥ ४२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Sharpen and constantly intensify the light of universal Agni, spirit of life, manifested in the all immanent fire of yajna, like a dear guest worthy of reverence in the delightful home, the spirit which is protector, promoter and really the head of family.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Good householders should be honored by the learned persons is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! honor a house- holder who is well known among the knowers of various sciences and is venerable like a dear guest. Honor him to your home.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who enkindle (use pervasive electricity), everywhere achieve victory.
Foot Notes
(जातवेदसि ) जातबिखे | = In the circle of the highly learned persons. ( शिशीत) तीक्ष्णीकुरुत | = Sharpen, here— honor or encourage.
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