ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 21
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
स प्र॑त्न॒वन्नवी॑य॒साग्ने॑ द्यु॒म्नेन॑ सं॒यता॑। बृ॒हत्त॑तन्थ भा॒नुना॑ ॥२१॥
स्वर सहित पद पाठसः । प्र॒त्न॒ऽवत् । नवी॑यसा । अग्ने॑ । द्यु॒म्नेन॑ । स॒म्ऽयता॑ । बृ॒हत् । त॒त॒न्थ॒ । भा॒नुना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स प्रत्नवन्नवीयसाग्ने द्युम्नेन संयता। बृहत्ततन्थ भानुना ॥२१॥
स्वर रहित पद पाठसः। प्रत्नऽवत्। नवीयसा। अग्ने। द्युम्नेन। सम्ऽयता। बृहत्। ततन्थ। भानुना ॥२१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 21
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यथा सूर्य्यो भानुना प्रत्नवद्बृहत्ततन्थ तथा स त्वं नवीयसा संयता द्युम्नेनास्मांस्तनु ॥२१॥
पदार्थः
(सः) (प्रत्नवत्) प्राचीनवत् (नवीयसा) अतिशयेन नवीनेन (अग्ने) अग्निरिव विद्वन् (द्युम्नेन) धनेन यशसा वा (संयता) संयच्छन्ति येन तेन (बृहत) महत् (ततन्थ) तनोति (भानुना) किरणेन ॥२१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये सूर्य्यवद्यशस्विनो भवन्ति ते नूतनां प्रतिष्ठां लभन्ते ॥२१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी विद्वन् ! जैसे सूर्य्य (भानुना) किरण से (प्रत्नवत्) प्राचीन के सदृश (बृहत्) बड़े को (ततन्थ) विस्तृत करता है, वैसे (सः) वह आप (नवीयसा) अत्यन्त नवीन (संयता) उत्तम प्रकार देते हैं जिससे, उस (द्युम्नेन) धन वा यश से हम लोगों को विस्तृत करो ॥२१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य्य के सदृश यशस्वी होते हैं, वे नवीन-नवीन प्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं ॥२१॥
विषय
राजा को राज्य विस्तार का उपदेश ।
भावार्थ
( प्रत्नवत् ) पुरातन, पहले के प्रतापी नायकों के समान, हे ( अग्ने ) विद्वन् ! नायक ! राजन् ! ( सः ) वह तू ( नवीयसे ) नये से नये, अति श्रेष्ठ, ( द्युम्नेन ) धन और यश से ( भानुना ) प्रकाश वा तेज से सूर्य के समान ( संयता ) अच्छी प्रकार प्रबन्ध करने वाले सैन्य बल से ( बृहत् ) बड़े भारी राष्ट्र को ( ततन्थ ) विस्तृत कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
पुराणा, परन्तु नया [वेदज्ञान]
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (सः) = वे आप (प्रत्नवत्) = अत्यन्त प्राचीन की तरह होते हुए भी (नवीयसा) = नवीन व अतिशयेन स्तुत्य (द्युम्नेन) = द्योतमान (संयता) = [संगच्छता] हमारे जीवन में संगत होते हुए (भानुना) = ज्ञान के प्रकाश से (बृहत् ततन्थ) = खूब ही हमारी शक्तियों का विस्तार करते हैं । [२] प्रभु से दिया जानेवाला यह वेदज्ञान अत्यन्त प्रचीन है। अत्यन्त प्राचीन होता हुआ भी यह नवीन-सा है 'देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति'। यह ज्ञान खूब ही दीप्त है। हमारे जीवन में जब यह अनूदित होता है, तो खूब ही हमारी शक्तियों को बढ़ाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे लिये अपने अजरामर काव्य वेद द्वारा ज्ञान देते हैं। यह ज्ञान हमारी सब शक्तियों के विकास का कारण होता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे यशस्वी होतात त्यांना नवनवीन प्रतिष्ठा प्राप्त होते. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, light of life, pioneer of the world, just as the sun with its splendour of light reveals and illuminates the world more and more as ever before, so you too, as ever before, with latest, well controlled and onward moving light and wealth, honour and excellence of knowledge, pervade, illuminate and expand the world of humanity.
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