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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वम॑ग्ने य॒ज्ञानां॒ होता॒ विश्वे॑षां हि॒तः। दे॒वेभि॒र्मानु॑षे॒ जने॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । य॒ज्ञाना॑म् । होता॑ । विश्वे॑षाम् । हि॒तः । दे॒वेभिः॑ । मानु॑षे । जने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः। देवेभिर्मानुषे जने ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। यज्ञानाम्। होता। विश्वेषाम्। हितः। देवेभिः। मानुषे। जने ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वान् किं कुर्य्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यतस्त्वं यज्ञानां होता विश्वेषां हितोऽसि तस्माद्देवेभिर्मानुषे जनेप्रेरको भव ॥१॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अग्ने) जगदीश्वर (यज्ञानाम्) सङ्गन्तव्यानां व्यवहाराणाम् (होता) दाता (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (हितः) हितकारी (देवेभिः) विद्वद्भिः सह (मानुषे) मनुष्याणामस्मिन् (जने) मनुष्ये ॥१॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! यथेश्वरः सर्वेषां हितकारी सकलसुखदाता विद्वत्सङ्गेन ज्ञातव्योऽस्ति तथा यूयमप्यनुतिष्ठत ॥१॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    अब अड़तालीस ऋचावाले सोलहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब विद्वान् क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जिस कारण से (त्वम्) आप (यज्ञानाम्) प्राप्त होने योग्य व्यवहारों के (होता) देनेवाले और (विश्वेषाम्) सब के (हितः) हितकारी हो इससे (देवेभिः) विद्वानों के साथ (मानुषे) मनुष्य-सम्बन्धी (जने) मनुष्य में प्रेरणा करनेवाले होओ ॥१॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे ईश्वर सब का हितकारी और सम्पूर्ण सुखों का देनेवाला तथा विद्वानों के सङ्ग से जानने योग्य है, वैसे आप लोग भी अनुष्ठान करो ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, विद्वान व ईश्वराचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो ! जसा ईश्वर सर्वांचा हितकारक, सकल सुखदाता विद्वानांच्या संगतीने जाणण्यायोग्य आहे तसे तुम्हीही अनुष्ठान करा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, self-refulgent leading light of the universe, you are the chief highpriest of all yajnic developments of nature and of all creative and developmental programmes of humanity for common universal good along with the brilliancies of nature and nobilities of humanity among the human community.

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