ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 31
यो नो॑ अग्ने दु॒रेव॒ आ मर्तो॑ व॒धाय॒ दाश॑ति। तस्मा॑न्नः पा॒ह्यंह॑सः ॥३१॥
स्वर सहित पद पाठयः । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । दुः॒ऽएवः॑ । आ । मर्तः॑ । व॒धाय॑ । दाश॑ति । तस्मा॑त् । नः॒ । पा॒हि॒ । अंह॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो अग्ने दुरेव आ मर्तो वधाय दाशति। तस्मान्नः पाह्यंहसः ॥३१॥
स्वर रहित पद पाठयः। नः। अग्ने। दुःऽएवः। आ। मर्तः। वधाय। दाशति। तस्मात्। नः। पाहि। अंहसः ॥३१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 31
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्न्यायाधीशः किं कुर्य्यादित्याह॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यो मर्त्तो नो वधाय दुरेवो दाशति तस्मादंहसो न आ पाहि ॥३१॥
पदार्थः
(यः) (नः) अस्मान् (अग्ने) न्यायाधीश (दुरेवः) दुष्टाचरणम् (आ) (मर्त्तः) मनुष्यः (वधाय) हननाय (दाशति) ददाति (तस्मात्) (नः) अस्मान् (पाहि) (अंहसः) अधर्माचरणम् ॥३१॥
भावार्थः
हे न्यायाधीश ! ये विना कृतेनाऽपराधं स्थापयन्ति तेभ्यः तीव्रं दण्डं देहि ॥३१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर न्यायाधीश क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) न्यायाधीश (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (नः) हम लोगों को (वधाय) मारने के लिये (दुरेवः) दुष्ट आचरण को (दाशति) देता है (तस्मात्) उस (अंहसः) अधर्म्माचरण से (नः) हम लोगों की (आ, पाहि) रक्षा कीजिये ॥३१॥
भावार्थ
हे न्यायाधीश ! जो करने के विना अपराध को स्थापित करते हैं, उनके लिये तीव्र दण्ड को दीजिये ॥३१॥
विषय
दुष्टों का मूलोच्छेदन ।
भावार्थ
हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! अग्निवत् दुष्ट पुरुष को दग्ध कर देने हारे ! ( या ) जो ( दुरेवः ) दुष्ट आचरण करने वाला, दुःखदायक, कर्म करने वाला, ( मर्त्तः ) मनुष्य ( नः वधाय ) हमारे नाश करने के लिये ( अ दाशति ) सब प्रकार से यत्न करता और हमें पकड़ता या अपनाता है, ( तस्मात् अंहसः ) उस पापी पुरुष से ( नः पाहि ) हमें बचा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
'दुरेव मर्त व पाप' से रक्षण
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = शत्रुओं को भस्म करनेवाले प्रभो ! (यः) = जो (दुरेवः) = दुष्ट अभिप्रायवाला (मर्तः) = मनुष्य (न:) = हमें (वधाय) = मारण के साधनभूत आयुधों के लिये (आदाशति) = सब प्रकार से देता है, अर्थात् जो हमें अस्त्रों द्वारा मारने की कामना करता है, (तस्मात्) = उससे (नः पाहि) = हमें बचाइये। [२] (अहंसः) = [नः पाहि] सब पापों से भी हमें बचाइये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें दुष्टाभिप्रायवाले मनुष्यों से तथा पापों से बचाएँ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे न्यायाधीशा! जे विनाकारण अपराध करतात त्यांना तीव्र दंड दे. ॥ ३१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, leading light of purity and justice, whatever the malignant force of negation, whatever the mortal power that strikes to eliminate us, give us the strength and protect us against that evil, to survive and move on.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a judge do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O dispenser of justice ! the malevolent mortal who gives us to or falsely accuses of wicked action in order to kill us, save us from that un-righteous conduct.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O administrator of justice ! those who bring false accusations of crime against us, inflict upon them the severe punishment.
Foot Notes
(अग्ने) न्यायाधीश । अग्नि:-अग्नि गतौ- गतेस्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थमादाय न्यायं प्रापयतीत्यग्निन्ययाधीशः । = Dispenser of justice (दुरेव:) दुष्टाचरणम् । दुरे+एव:-इया गतौ । इण् शीभ्यां वन् ( उणादिकोषे 1, 152 ) इतिवन् प्रत्ययः दुष्ट गमनम् दुष्टाचरणम् = Wicked conduct.
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