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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 45
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद॑ग्ने भारत द्यु॒मदज॑स्रेण॒ दवि॑द्युतत्। शोचा॒ वि भा॑ह्यजर ॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उउ । अ॒ग्ने॒ । भा॒र॒त॒ । द्यु॒ऽमत् । अज॑स्रेण । दवि॑द्युतत् । शोच॑ । वि । भा॒हि॒ । अ॒ज॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदग्ने भारत द्युमदजस्रेण दविद्युतत्। शोचा वि भाह्यजर ॥४५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। अग्ने। भारत। द्युऽमत्। अजस्रेण। दविद्युतत्। शोच। वि। भाहि। अजर ॥४५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 45
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे भारताजराग्ने ! भवानजस्रेण द्युमद्दविद्युतत् तदर्थं त्वमुच्छोचा वि भाहि ॥४५॥

    पदार्थः

    (उत्) (अग्ने) विद्वन् (भारत) धर्त्तः (द्युमत्) प्रकाशवत् (अजस्रेण) निरन्तरेण (दविद्युतत्) द्योतयति (शोचा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वि) (भाहि) (अजर) जरादोषरहित ॥४५॥

    भावार्थः

    यथा ब्रह्माण्डे सूर्य्यः सततं प्रकाशते तथैव विद्वांसः सत्यव्यवहारे प्रकाशयन्ताम् ॥४५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (भारत) धारण करनेवाले (अजर) जरा दोष से रहित (अग्ने) विद्वन् ! आप (अजस्रेण) निरन्तर (द्युमत्) प्रकाशवाले को (दविद्युतत्) प्रकाशित करते हो, उसके लिये आप (उत्, शोचा) अत्यन्त प्रकाशित हूजिये और (वि, भाहि) विशेष करके प्रकाशित करिये ॥४५॥

    भावार्थ

    जैसे ब्रह्माण्ड में सूर्य्य निरन्तर प्रकाशित होता है, वैसे ही विद्वान् जन सत्य व्यवहार में प्रकाशित हों ॥४५॥

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    विषय

    उसकी सर्वोच्च स्थिति और चमकने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( भारत ) प्रजा के पोषण करने हारे एवं मनुष्यों के स्वामिन् ! तू ( द्युमत् ) कान्तियुक्त (अजस्त्रेण ) अविनाशी, निरन्तर चमकने वाले तेज से ( उत् दविद्युतत् ) सूर्य के समान सब से ऊंचा रहकर प्रकाशित हो । हे ( अग्ने ) तेजस्विन् नायक ! हे ( अजर ) जरादि दोषों से रहित युवा, बलवान् ! हे शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले ! तू ( शोचा ) कान्ति से ( विभाहि ) विविध प्रकार से चमक और प्रजाओं को अच्छा लग । इत्येकोनत्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दीप्त प्रभु हमें भी दीप्त करें

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी (भारत) = हम सबका भरण करनेवाले प्रभो! आप (अजस्त्रेण) = निरन्तर (द्युमत्) = खूब ज्योति के साथ (दविद्युतत्) = ज्ञान दीप्ति से द्योतमान होते हुए (उत् शोच) = खूब ही दीप्त होइये । [२] हे अजर-कभी जीर्ण न होनेवाले प्रभो! आप (विभाहि) = विशिष्ट रूप से हमारे हृदयों को दीप्त करिये [अन्तर्भावितण्थर्योऽत्र भातिः] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अनुपम ज्योति से दीप्त हैं। वे हमारे अन्तःकरणों को दीप्त करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा ब्रह्मांडात सूर्य सतत प्रकाश देतो तसाच विद्वान लोकांनी सत्य व्यवहार करावा. ॥ ४५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, unaging sustainer of life, shining with the light of excellence and blazing with glory, rise up with flames of fire and shine on with inexhaustible splendour, and help the shining people too to rise in the light of knowledge and excellence of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do iș again told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O upholder of noble virtues ! enlightened person free from the defects of old age, (energetic) and un-decaying, you illuminate constantly. Therefore shine forth and glean with the light of knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun shines and illumines constantly in the world, so the enlightened persons should illuminate all, in truthful conduct.

    Translator's Notes

    Even Sayanacharya has explained भारत for Agni as हविषांभर्तः which Wilson has translated as 'the bearer of oblations' 'but Griffith has very erroneously translated it as 'O Agni of the Bharatas'. taking भारत as proper noun for the descendants of a king named Bharat. This is wrong as it is against the fundamental principles of the Vedic terminology as pointed out several times before.

    Foot Notes

    (भारत) धुर्त: । (भारत ) भुन्-धारणपोषणयो: (जु) अत्र धारणार्थः = O upholder (of noble virtues).

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