ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 47
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ ते॑ अग्न ऋ॒चा ह॒विर्हृ॒दा त॒ष्टं भ॑रामसि। ते ते॑ भवन्तू॒क्षण॑ ऋष॒भासो॑ व॒शा उ॒त ॥४७॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । ऋ॒चा । ह॒विः । हृ॒दा । त॒ष्टम् । भ॒रा॒म॒सि॒ । ते । ते॒ । भ॒व॒न्तु॒ । उ॒क्षणः॑ । ऋ॒ष॒भासः॑ । व॒शाः । उ॒त ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते अग्न ऋचा हविर्हृदा तष्टं भरामसि। ते ते भवन्तूक्षण ऋषभासो वशा उत ॥४७॥
स्वर रहित पद पाठआ। ते। अग्ने। ऋचा। हविः। हृदा। तष्टम्। भरामसि। ते। ते। भवन्तु। उक्षणः। ऋषभासः। वशाः। उत ॥४७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 47
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यस्य ते तव हविस्तष्टं स्वरूपं वयमृचा हृदाऽऽभरामसि ते कृपयाऽस्माकं ते सम्बन्धिन उक्षण ऋषभास उत वशा भवन्तु ॥४७॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (ते) तव (अग्ने) जगदीश्वर (ऋचा) प्रशंसया ऋग्वेदादिना (हविः) अन्तःकरणम् (हृदा) हृदयेन (तष्टम्) तीक्ष्णं शोधितम् (भरामसि) भरामः (ते) (ते) तव (भवन्तु) (उक्षणः) सेचकाः (ऋषभासः) उत्तमाः (वशाः) कामयमानाः (उत) ॥४७॥
भावार्थः
ये सत्यभावेनान्तःकरणेन जगदीश्वराज्ञां सेवन्ते ते सर्वथोत्कृष्टा भवन्ति ॥४७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जिन (ते) आपके (हविः) अन्तःकरण और (तष्टम्) अत्यन्त शुद्ध किये गये स्वरूप को हम लोग (ऋचा) प्रशंसारूप ऋग्वेद आदि से और (हृदा) हृदय से (आ, भरामसि) अच्छे प्रकार पोषण करते हैं उन (ते) आपकी कृपा से हमारे और (ते) आपके संबन्धी (उक्षणः) सेचन करनेवाले (ऋषभासः) उत्तम (उत) भी (वशाः) कामना करते हुए (भवन्तु) होवें ॥४७॥
भावार्थ
जो सत्यभाव से और अन्तःकरण से जगदीश्वर की आज्ञा का सेवन करते हैं, वे सब प्रकार से उत्कृष्ट होते हैं ॥४७॥
विषय
राजा के अधीन जनों के गुण ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! ज्ञानमय ! हे स्वप्रकाश ! ( ते ) तेरे लिये हम ( ऋचा ) उत्तम मन्त्र से, उत्तम आदर से युक्त वचन सहित, ( हृदा ) हृदय से (तष्टम् ) सुसंस्कृत ( हविः ) ग्राह्य, अन्न ( आ भरामसि ) प्रस्तुत करें ( ते ) तेरे कार्य के लिये ( ते ) वे सब ( उक्षणः ) कार्य-भार उठाने वाले तथा वीर्यसेचन में समर्थ, बलवान् और मनुष्य, ( ऋषभासः ) सत्य न्याय से कान्तिमान्, नरश्रेष्ठ पुरुष ( उत वशा: ) राष्ट्रों को वश करने वाले अधिकारी, ( वशाः ) तुझे चाहने वाली प्रजाएं ( ते भवन्तु ) तेरे अधीन हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
उक्षणः ऋषभासः वशाः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये (ऋचा) = ऋचाओं के साथ, विज्ञानपूर्वक अथवा 'ऋच् स्तुतौ ' स्तुतिपूर्वक (हृदातष्टम्) = हृदय से निर्मित, अर्थात् श्रद्धापूर्वक की गई (हविः) = हवि को त्यागपूर्वक अदन को (भरामसि) = धारण करते हैं। विज्ञान और श्रद्धा से किये गये यज्ञरूप कर्म ही प्रभु प्राप्ति का साधन बनते हैं। [२] (ते) = वे विज्ञान और श्रद्धापूर्वक हवि को अपनानेवाले लोग (ते) = वस्तुतः आपके हैं। ये लोग (उक्षणः) = अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले बनें, (ऋषभासः) = श्रेष्ठ व गतिशील हों [ऋष गतौ] (उत) = और (वशा:) = अपनी इन्द्रियों को पूर्णरूप से वश में करनेवाले भवन्तु हों। शक्ति का अपने में सेचन करके ही हम गतिशील बनते हैं। यह गतिशीलता हमें इन्द्रियों के वशीकरण में समर्थ करती है ।
भावार्थ
भावार्थ– 'ज्ञान व श्रद्धापूर्वक हम यज्ञों को करें' यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है। ये प्रभु के व्यक्ति [क] अपने में शक्ति का सेचन करते हैं, [ख] ये गतिशील होते हैं और [ग] इन्द्रियों को वश में करनेवाले होते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे सत्यभावनेने अंतःकरणपूर्वक जगदीश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतात ते सर्व प्रकारे उत्कृष्ट असतात. ॥ ४७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, O lord of light, omniscience and omnipotence, thus do we bear and offer the homage of surrender and self-sacrifice to you, prepared with love of the heart and sanctified with holy chant of Rgveda, and we pray may all our people be for you, virile and generous, inspired with love and brilliance of excellence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God the Supreme leader ! we meditate upon your Divine nature in our purified heart with the Rigveda and other Vedas. By your grace, let all our kith and kin be showerers of peace, very good and desirous of the welfare of all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who obey the commands of God with earnest heart, become exalted.
Foot Notes
(हविः) अन्तःकरणम् । (हविः) हु-दावादनयोः आदाने च (जुहो०) दीयते परमात्मानं प्रति इति हविः शङ्खान्तः करणम् । = Heart, mind, intellect, ego. (उक्षण:) सेचकाः । उक्ष सेजने (भ्वा० ) = Showerers of peace. (ऋषभासः) उत्तमा: । = Very good. (वशाः ) कामयमानाः । वय-कान्तौ (अ०) कान्ति: कामना | = Desiring the welfare of all.
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