ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 14
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तमु॑ त्वा द॒ध्यङ्ङृषिः॑ पु॒त्र ई॑धे॒ अथ॑र्वणः। वृ॒त्र॒हणं॑ पुरन्द॒रम् ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । द॒ध्यङ् । ऋषिः॑ । पु॒त्रः । ई॒धे॒ । अथ॑र्वणः । वृ॒त्र॒ऽहन॑म् । पु॒र॒म्ऽद॒रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु त्वा दध्यङ्ङृषिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरन्दरम् ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठतम्। ऊँ इति। त्वा। दध्यङ्। ऋषिः। पुत्रः। ईधे। अथर्वणः। वृत्रऽहनम्। पुरम्ऽदरम् ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् राजंस्तमु वृत्रहणं पुरन्दरं सूर्य्यमिव त्वाऽथर्वणः पुत्रो दध्यङ् ऋषिरीधे तथा त्वं मां कुरु ॥१४॥
पदार्थः
(तम्) (उ) (त्वा) त्वाम् (दध्यङ्) यो धारकान् विदुषोऽञ्चति प्राप्नोति (ऋषिः) मन्त्रार्थवेत्ता (पुत्रः) तनयः (ईधे) प्रदीपयति (अथर्वणः) अहिंसकस्य (वृत्रहणम्) मेघहन्तारम् (पुरन्दरम्) यो मेघस्य पुराणि दृणाति ॥१४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथेश्वरेण प्रकाशमयः सकलोपकारकः सूर्यो निर्मितस्तथा विद्यया प्रकाशिताञ्जनान् विदुषः सम्पादयन्तु ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् राजन् (तम्, उ) उन्हीं (वृत्रहणम्) मेघों के नाश करनेवाले (पुरन्दरम्) मेघों के पुरों को नाश करनेवाले सूर्य्य को जैसे वैसे (त्वा) आपको (अथर्वणः) नहीं हिंसा करनेवाले का (पुत्रः) पुत्र (दध्यङ्) धारण करनेवाले विद्वानों को प्राप्त होने और (ऋषिः) मन्त्र और अर्थ जाननेवाला (ईधे) प्रदीप्त करता है, वैसे आप मुझको करिये ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! जैसे ईश्वर ने प्रकाशस्वरूप और सम्पूर्ण जगत् का उपकारक सूर्य्य रचा है, वैसे विद्या से प्रकाशित जनों को विद्वान् करो ॥१४॥
विषय
अथवा दध्यङ् ऋषिके अग्नि मथन का रहस्योद्भेद ।
भावार्थ
हे (अग्ने ) अग्रणी नायक ! हे आत्मन् ! ( अथर्वणः ) प्रजा का नाश न होने देने वाले सर्वपालक पुरुष का ( पुत्रः ) प्रतिनिधि पुरुष जो बहुतसों की रक्षा करने में समर्थ है और ( दध्यङ् ) राष्ट्र को धारण करने में समर्थ और ( ऋषिः ) यथार्थ धर्माधर्म, सत्यासत्य का विवेचक हो, वह (तम् त्वाम् ) उस तुझ ( वृत्रहणं ) विघ्नकारी, बढ़ते शत्रुओं के नाशक और ( पुरं-दरम् ) शत्रुपुरों के तोड़ने हारे को ( ईधे ) और भी प्रकाशित करे, तुझे अधिक शक्तिशाली बनावे । ( २ ) अथर्वा आचार्य का ( दध्यङ् ऋषि: ) ज्ञानधारक एवं ध्यानाभ्यासी शिष्य तुझे साक्षात् करे । आत्मा या परमात्मा अज्ञानान्धकार का नाशक होने से वृत्रहा और ज्ञान बल से देहबन्धनाश करने से पुरन्दर है । ( ३ ) अथर्वा वायु का पुत्र मेघ विद्युत् को चमकाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
वृत्रहणं पुरन्दरम्
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (तं त्वा उ) = उन आपको निश्चय से (अथर्वणः पुत्रः) = अथर्वा का पुत्र, अर्थात् उत्कृष्ट अथर्वा, पूर्ण रूप से चित्तवृत्ति को अन्तर्मुखी करनेवाला [अथ अर्वाङ्] (दध्यड्) = ध्यान में प्रवृत्त होनेवाला (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा मनुष्य (ईधे) = अपने हृदयदेश में दीप्त करता है । जितना-जितना हम चित्तवृत्ति का निरोध करके अन्तर्मुखी वृत्तिवाला बनेंगे, उतना ही अधिक प्रभु का प्रकाश देख पायेंगे। [२] उन आपको यह हृदयदेश में दीप्त करता है, जो (वृत्रहणम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले हैं। और (पुरन्दरम्) = काम-क्रोध-लोभ रूप असुरों की पुरियों का विध्वंस करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु का दर्शन चित्तवृत्ति के निरोध से ही सम्भव है । वे प्रभु वासना को विनष्ट करते हैं और आसुरभावों के दुर्गों का विध्वंस करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! ईश्वराने जसा प्रकाशस्वरूप व संपूर्ण जगाचा उपकारक सूर्य निर्माण केला आहे तसे विद्येमुळे प्रसिद्ध असलेल्या लोकांना विद्वान करा. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The seer divining into the meaning of Veda- mantra, who is the child of love and non-violence dedicated to scholarly teachers, lights and develops you, breaker of the clouds and shatterer of the strongholds of darkness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened persons do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned king! the son of a non- violent person who approaches many upholders of knowledge and is the knower of the mantras of the Vedas, kindles you with knowledge like the sun- the destroyer of the cities of the cloud, so do you enlighten me.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons! as God has created this resplendent sun which is benevolent to all, so you should make all people enlightened with knowledge.
Foot Notes
(दभ्यङ) बोधारकान् विदुषोऽचति प्राप्नोति सः ।दध्यड् (डु) धाम्-धारणपोषणमो: ( जु० ) अत्र धारणार्थः । अन्चु गतिपूजनमो: (भ्वा० ) अत्र गतेत्रिष्वर्थेषु गति प्राप्त्यर्थग्रहणम् । = He who approaches the upholders (of knowledge ). (पुरन्दरम् ) यो मेघस्य पुराणि दुणाति । = The sun who tears away or is destroyer of the cities of the cloud.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal