ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 41
प्र दे॒वं दे॒ववी॑तये॒ भर॑ता वसु॒वित्त॑मम्। आ स्वे योनौ॒ नि षी॑दतु ॥४१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । दे॒वम् । दे॒वऽवी॑तये । भर॑त । व॒सु॒वित्ऽत॑मम् । आ । स्वे । योनौ॑ । नि । सी॒द॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र देवं देववीतये भरता वसुवित्तमम्। आ स्वे योनौ नि षीदतु ॥४१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। देवम्। देवऽवीतये। भरत। वसुवित्ऽतमम्। आ। स्वे। योनौ। नि। सीदतु ॥४१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 41
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं प्राप्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यूयं देववीतये वसुवित्तमं देवं स्वे योनौ प्राऽऽभरता येन मनुष्यः सुखेन निषीदतु ॥४१॥
पदार्थः
(प्र) (देवम्) दातारम् (देववीतये) दिव्यगुणप्राप्तये (भरता) धरत हरत वा (वसुवित्तमम्) अतिशयेन वसु वेत्ति तम् (आ) (स्वे) स्वकीये (योनौ) गृहे (नि) (सीदतु) ॥४१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! भवन्तो दिव्यगुणप्राप्तयेऽग्न्यादिपदार्थान् विजानन्तु ॥४१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या प्राप्त करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! आप लोग (देववीतये) श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिये (वसुवित्तमम्) अतिशय धन को जानने और (देवम्) देनेवाले को (स्वे) अपने (योनौ) गृह में (प्र, आ, भरता) उत्तमता से अच्छे प्रकार धारण करिये वा हरिये, जिससे मनुष्य सुख से (नि, षीदतु) निरन्तर स्थिर होवे ॥४१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिये अग्नि आदि पदार्थों को जानिये ॥४१॥
विषय
योग्य की योग्य पद आदर प्राप्ति ।
भावार्थ
हे विद्वान् प्रजाजनो ! आप लोग (देव-वीतये ) विद्वानों की रक्षा, शुभ गुणों की प्राप्ति, और विजयाभिलाषी और व्यवहारवान्, नाना कामनावान् प्रजाओं के रक्षण के लिये ( देवं ) ज्ञान वा धन के देनेहारे तेजस्वी ( वसु-वित्तमम् ) प्रजाओं को और ऐश्वर्यों को भली प्रकार लाभ करने वाले पुरुष को ( प्र भरत ) अच्छी प्रकार पुष्ट करो और वह ( स्वे योनौ ) अपने उचित स्थान पर ( आ निषीदतु ) आदरपूर्वक विराजे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
'वसुवित्तम' देव
पदार्थ
[१] (देवम्) = उस प्रकाशमय, दिव्यगुणों के पुञ्ज, (वसुवित्तमम्) = अधिक अधिक वसुओं के प्राप्त करानेवाले प्रभु को (प्रभरत) = प्रकर्षेण हृदयों में धारण करो। (देववीतये) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिये उस देव का धारण ठीक ही है। [२] हमारा हृदय प्रभु का निवास स्थान बने । वे प्रभु (स्वे योनौ) = अपने इस उपासक हृदय रूप गृह में (आ निषीदतु) = सर्वथा आसीन हों। हमारा हृदय प्रभु का अधिष्ठान बने । प्रभु के वहाँ स्थित होने पर ही वासनाओं का दहन होकर दिव्यगुणों का जन्म होगा।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु देव हैं, वसुवित्तम हैं। हम अपने हृदयों को प्रभु का आधार बनाएँ और इस प्रकार वासनादहन करके दिव्य गुणों को प्राप्त करें ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! तुम्ही श्रेष्ठ गुणांच्या प्राप्तीसाठी अग्नी इत्यादी पदार्थ जाणा. ॥ ४१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Place, light and raise the brilliant and generous fire in your home for favour of the bounties of nature and humanity since it is the immense source giver of wealth, honour and excellence. Let the holy fire be instituted and maintained so that you abide in peace and joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men attain is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person! for the attainment of divine virtues, establish Agni (fire or electricity) which is giver of much happiness and heat and conveyor of abundant wealth (when used methodically) in your home, so that a man may sit happily.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should acquire the knowledge of Agni (in the form of fire and electricity) and other objects for the attainment of divine virtues.
Translator's Notes
The mantra is also applicable to a great scientist who knows how to acquire wealth by the proper and methodical use of the Agni (fire and electricity) विद्वान्सोहि देवाः (Stph. Brahmana 3, 7, 3, 10)।
Foot Notes
(देववीतये) दिव्यगुणप्राप्तये । बी-गति व्याप्ति प्रजन कान्त्यसन् खादनेषु (अदा० ) अत्र गते स्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थं ग्रहणम् । = For the attainment of the divine virtues. (देवम्) दातारम् । देवो दानाद् वा दीपनाद वा द्योतनाद् वा द्युस्पानोभवतीति वा (NKT 7, 4, 16) = Giver of happiness and heat.
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