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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 20
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स हि विश्वाति॒ पार्थि॑वा र॒यिं दाश॑न्महित्व॒ना। व॒न्वन्नवा॑तो॒ अस्तृ॑तः ॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । विश्वा॑ । अति॑ । पार्थि॑वा । र॒यिम् । दाश॑त् । म॒हि॒ऽत्व॒ना । व॒न्वन् । अवा॑तः । अस्तृ॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि विश्वाति पार्थिवा रयिं दाशन्महित्वना। वन्वन्नवातो अस्तृतः ॥२०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। हि। विश्वा। अति। पार्थिवा। रयिम्। दाशत्। महिऽत्वना। वन्वन्। अवातः। अस्तृतः ॥२०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 20
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽस्तृतोऽवातो महित्वना वन्वन्नग्निर्विश्वा पार्थिवा रयिमति दाशत्स हि सर्वैर्वेदितव्योऽस्ति ॥२० ॥

    पदार्थः

    (सः) (हि) (विश्वा) सर्वाणि (अति) (पार्थिवा) पृथिव्यां विदितानि वस्तूनि (रयिम्) धनम् (दाशत्) (महित्वना) महत्त्वेन (वन्वन्) सम्भजन् (अवातः) वायुवर्जितः (अस्तृतः) अहिंसितः ॥२० ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽग्निर्बहु सुखं ददाति सः कथन्न सेव्येत ॥२० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अस्तृतः) नहीं हिंसित (अवातः) पवन से वर्जित (महित्वना) महत्त्व से (वन्वन्) सेवन करता हुआ अग्नि (विश्वा) सम्पूर्ण (पार्थिवा) पृथिवी में विदित वस्तुओं और (रयिम्) धन को (अति, दाशत्) अत्यन्त देता है (सः, हि) वह सब लोगों से जानने योग्य है ॥२० ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अग्नि बहुत सुख को देता है, उसका क्यों नहीं सेवन किया जावे ॥२० ॥

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    विषय

    अनबूझ अग्नि राजा ।

    भावार्थ

    ( सः हि ) वह निश्चय से ( विश्वानि पार्थिवा) पृथिवी के समस्त ऐश्वर्यों को ( अति ) अतिक्रमण करने वाले ( रयिम् ) ऐश्वर्य को ( महित्वना ) अपने महान् सामर्थ्य से ( दाशत् ) दे । और ( अवातः ) कभी शत्रुरूप प्रतिकूल वायु से भी न झुककर ( अस्तृतः ) कभी मारा न जाकर सुख से उस ऐश्वर्य को स्वयं भी ( वन्वन् ) भोग करता रहे । ( २ ) भौतिक अग्नि सूर्य ही सब रत्न सुवर्णादि को उत्पन्न करता, कभी न बुझता, न नाश होता है । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    धन प्राप्ति व वासना विनाश

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (हि) = निश्चय से (विश्वा) = सब (पार्थिवा) = इस पृथिवी सम्बन्धी (रयिम्) = धनों को (अतिदाशत्) = अतिशयेन दें, पार्थिव धनों को वे प्रभु हमें जीवनयात्रा की पूर्ति के लिये प्राप्त कराएँ । [२] ये प्रभु (महित्वना) = अपनी महिमा से (वन्वन्) = हमारे शत्रुओं का हिंसन करें। प्रभु कृपा से मैं (अवातः) = शत्रुओं से अनाक्रान्त होऊँ और (अस्तृतः) = अहिंसित होऊँ । शत्रुओं से अनाक्रान्त हुआ-हुआ ही तो मैं जीवनयात्रा में आगे बढ़ सकूँगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें जीवनयात्रा के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराएँ और हमारे काम है। क्रोध आदि शत्रुओं का हिंसन करें जिससे जीवनयात्रा ठीक से पूर्ण हो सके।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो अग्नी अत्यंत सुख देतो त्याचा स्वीकार का केला जाऊ नये? ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That Agni, light of the world, all loving, destroying all evil, unassailable, unshaken, bestows upon us all the wealth, honour and excellence of the world solely by his greatness and power.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The character of Agni is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The fire without wind and un- assailed bestows all earthly (material) riches by its greatness when utilized properly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! why should not you serve or utilize that Agni (fire or electricity) which gives much happiness?

    Foot Notes

    (अस्तृत:) अ + हिन्सितः ।स्तृ-हिन्सायाम्। = Unassailed. ( दाशत्) ददाति । दाशृ-दाने | = Gives. (वन्वन्) सम्भजम् । वन-संभक्तौ (स्वा० ) = Serving or being used properly.

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