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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वाम॑ग्ने॒ पुष्क॑रा॒दध्यथ॑र्वा॒ निर॑मन्थत। मू॒र्ध्नो विश्व॑स्य वा॒घतः॑ ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । पुष्क॑रात् । अधि॑ । अथ॑र्वा । निः । अ॒म॒न्थ॒त॒ । मू॒र्ध्नः । विश्व॑स्य । वा॒घतः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत। मूर्ध्नो विश्वस्य वाघतः ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। पुष्करात्। अधि। अथर्वा। निः। अमन्थत। मूर्ध्नः। विश्वस्य। वाघतः ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः कस्मात्कस्माद्विद्युत्सङ्ग्राह्येत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् ! यथा वाघतो विश्वस्य मूर्ध्नः पुष्करादध्यग्निं निरमन्थत तथाऽथर्वाऽहं त्वां प्रदीपयामि ॥१३॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) (अग्ने) (पुष्करात्) अन्तरिक्षात् (अधि) उपरि (अथर्वा) अहिंसकः (निः) (अमन्थत) मन्थन्ति (मूर्ध्नः) उपरि वर्त्तमानस्य (विश्वस्य) सर्वस्य जगतः (वाघतः) मेधाविनः ॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथा पदार्थविद्याविदो जनाः सूर्य्यादेः सकाशाद् विद्युतं गृहीत्वा कार्य्याणि साध्नुवन्ति तथैव यूयमपि साध्नुत ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य किस-किससे बिजुली का ग्रहण करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वन् ! जैसे (वाघतः) बुद्धिमान् जन (विश्वस्य) सम्पूर्ण जगत् के (मूर्ध्नः) ऊपर वर्त्तमान के (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से (अधि) ऊपर अग्नि को (निः, अमन्थत) मथते हैं, वैसे (अथर्वा) अहिंसक मैं (त्वाम्) आपको प्रकाशित करता हूँ ॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! जैसे पदार्थविद्या के जाननेवाले जन सूर्य्य आदि के समीप से बिजुली को ग्रहण करके कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही आप लोग भी सिद्ध करो ॥१३॥

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    विषय

    मेघस्थ अग्निवत् शिरोमणि विद्वान् की स्थिति । उसकी उत्पत्ति और कर्तव्य । पक्षान्तर में आत्माग्नि का मथन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( अथर्वा ) वायु ( विश्वस्य मूर्ध्नः ) समस्त संसार के मूर्धा अर्थात् शिरोभाग, ऊपर या सब से ऊपर विद्यमान ( पुष्करात् ) सबको पुष्ट करने वाले, अन्तरिक्ष, मेघ से ( अग्निम् निर् अमन्थत ) विद्युत् रूप अग्नि को मथकर विद्युत् को प्रकट करता है उसी प्रकार ( वाघतः ) विद्वान् लोग भी हे ( अग्ने ) भौतिक अग्ने ! ( त्वाम् ) तुझको ( विश्वस्य मूर्ध्नः ) समस्त संसार के शिरो रूप से विद्यमान ( पुष्करात् ) सबके पोषणकारक सूर्य या मेघ से ( त्वाम् निर् अमन्थत ) सार रूप से तुझको मथ कर प्राप्त करें । और विद्वान् लोग ( अथर्वा ) अहिंसक, प्रजापालक विद्वान् हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! सर्वोपरि विद्यमान, सर्वपोषक कृषक प्रजाजन में से ही ( त्वाम् निर् अमन्थत ) तुझ नायक को सारवान् जानकर वाद विवाद के अनन्तर प्राप्त करें । ( २ ) अहिंसा महाव्रत का पालक ‘अथर्वा’ योगीजन इस देह के शिरोभाग कपाल में से अरणियों से आग के समान, आत्मा रूप अग्नि को ध्यान निर्मथन द्वारा प्राप्त करें ।

    टिप्पणी

    स्वदेहमरणिं कृत्वा आत्मानञ्चोत्तरारणिम् । ध्याननिर्मर्थनाभ्यासात् पश्येद्देवं निगूढवत् ॥ श्वेता ।।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    पुष्कर+मूर्धा [हृदय+मस्तिष्क]

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वाम्) = आपको (अथर्वा) = [अथ अर्वाङ्] अन्तः निरीक्षण करनेवाला योगी (पुष्करात्) = इस हृदयान्तरिक्ष से [पुष्कर = atmosphere] (निरमन्थत) = मन्थन [विचार] के द्वारा देख पाता है। केवल पुष्कर से नहीं, अपितु (मूर्ध्नः) = मस्तिष्क के द्वारा, उस मस्तिष्क के द्वारा से जो (विश्वस्य वाघतः) = सम्पूर्ण ज्ञानों का वहन करनेवाला है। [२] जैसे दो अरणियों की रगड़ से अग्नि प्रकट होती है, इसी प्रकार हृदय व मस्तिष्क रूप दो अरणियों की रगड़ से प्रभुरूप अग्नि प्रकट होती है। हृदय को हम पुष्कर [कमल] की तरह अलिप्त बनाएं तथा मस्तिष्क को सब ज्ञानों का वहन करनेवाला। इन दोनों का मेल होने पर हम प्रभु के प्रकाश को देख पायेंगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हृदय व मस्तिष्क दोनों का विकास हमें प्रभु दर्शन कराने में सहायक होगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसे पदार्थविद्या जाणणारे लोक सूर्यापासून विद्युत ग्रहण करून कार्य सिद्ध करतात तसे तुम्हीही सिद्ध करा. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light of life, the wise scholar and devotee, Atharva, dedicated to love and non-violence, discovers and churns you out without violence from the highest sphere above the skies which supports and sustains the entire universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The sources of power or energy are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! as wise scientists derive (generate or tap) electricity from the firmament which is like the forehead of the whole world, so I a non-violent person kindle you (fill you with knowledge).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! as the scientists who are well versed in the science of physics, (harness) take electricity from the sun and other objects (resources) and thereby accomplish their works; so you should also do.

    Foot Notes

    ( पुष्करात् ) अन्तरिक्षात् । घौः पुष्करवर्णम् (Stph 6, 4, 1, 9)। = From firmament. (अथर्वा ) अहिंसकः । थर्व हिंसायाम् . (काशवृत्स्न धातुपाठे भ्वा० 204 )। = Non-violent. (वाधत:) मेधाविनः । वाधत इति मेधाविनाम् (NG 3, 15)। = Wise men.

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