ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 38
उप॑च्छा॒यामि॑व॒ घृणे॒रग॑न्म॒ शर्म॑ ते व॒यम्। अग्ने॒ हिर॑ण्यसंदृशः ॥३८॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । छा॒याम्ऽइ॑व । घृणेः॑ । अग॑न्म । शर्म॑ । ते॒ । व॒यम् । अग्ने॑ । हिर॑ण्यऽसन्दृशः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपच्छायामिव घृणेरगन्म शर्म ते वयम्। अग्ने हिरण्यसंदृशः ॥३८॥
स्वर रहित पद पाठउप। छायाम्ऽइव। घृणेः। अगन्म। शर्म। ते। वयम्। अग्ने। हिरण्यऽसन्दृशः ॥३८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 38
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं प्राप्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! ते तव घृणेश्छायामिव शर्म हिरण्यसन्दृशो वयमुपाऽगन्म ॥३८॥
पदार्थः
(उप) (छायामिव) (घृणेः) प्रदीप्तात्सूर्य्यात् (अगन्म) प्राप्नुयाम (शर्म) गृहम् (ते) तव (वयम्) (अग्ने) विद्वन् (हिरण्यसन्दृशः) हिरण्यं तेज इव सन्दृक् समानं दर्शनं येषान्ते ॥३८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वन् ! वयं सर्वर्त्तुकं सूर्य्यमिव प्रकाशमानं तव गृहं प्राप्य छायामिव सेवेमहि ॥३८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या प्राप्त करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! (ते) आपके (घृणेः) प्रदीप्त सूर्य्य से (छायामिव) छाया को जैसे वैसे (शर्म) गृह को (हिरण्यसन्दृशः) तेज के सदृश समान दर्शन जिनका ऐसे (वयम्) हम लोग (उप) समीप (अगन्म) प्राप्त होवें ॥३८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वन् ! हम लोग सब ऋतुओं में हुए सूर्य्य को जैसे वैसे प्रकाशमान आपके गृह को प्राप्त होकर छाया के सदृश सेवन करें ॥३८॥
विषय
धूप में तप्त की छायावत् प्रभु शरण प्राप्ति ।
भावार्थ
है (अग्ने ) तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! ( हिरण्य-सन्दृशः ) हित और रमणीय वा तेजोयुक्त सम्यक् दर्शन अर्थात् ज्ञान से सम्पन्न वा सुवर्णादि धनों से अच्छे रूपवान, सुसज्जित दीखने वाले ( ते ) तुझ ( घृणे: ) कान्तियुक्त, सूर्यवत् तेजस्वी और कृपालु ( शर्म ) शरण में ( वयम् ) हम सन्तप्त जन ( छायाम् इव ) छाया के समान ही ( उपअगन्म ) प्राप्त करें और शान्ति सुख लाभ करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
उपच्छायामिव घृणे:, अगन्म शर्म ते वयम्।
अग्ने हिरण्यसंदृश;।। ऋग्वेद ६.१६.३८
वैदिक भजन १२३९ वां
राग पहाड़ी
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल कहरवा आठ मात्रा
हुए जब धूप से व्याकुल
ढूंढते शीतल छाया हम
खोज लेते हैं तरु घने
पाने को शीतल छाया परम
हुए जब .........
सांसारिक ताप से संतप्त
हैं क्लेषों से उद्विग्न हम
छाया बिन चैन कहां पायें
अवस्था हो गई है अगम
जाएं तो किसकी छाया में हम
कि जिससे निकल ना जाए दम
हुए जब .........
किसी भी वृक्ष की छाया
सांसारिक ताप मिटा ना सके
अविद्या अस्मिता राग द्वेष में
हम तो जा रहे हैं तपे
ये भौतिक छाया न शान्ति दे
तपे क्लेशों से संतप्त जन
हुए जब.......
हे जगतपति ! हे परमेश्वर !
तुम्हारी छाया है शीतल
हमारे सर्व संतापों को
करती दूर बड़ी है प्रबल
अतः हम आ रहे हैं त्वरित
तुम्हारी पाने सुखद शरण
हुए जब............
तुम्हारी अग्नि की ज्वाला
'घृणि' है भस्म करती पाप
सुवर्ण सम हो तेजस्वी
शान्ति दायक हो अग्नि आप
तुम्हारी छत्रछाया में
आसुरी वृत्तियों का होगा दमन
हुए जब .........
तुम्हारी अग्नि हिरण्यसंदृश
करेगी संतापोंं का नाश
करेगी हम सबका उद्धार
तुम्हारा लेकर प्रथित प्रकाश
शरण दे दो हे सुखदाता !
आनन्द दे दो हे सच्चिदानन्द !
हुए जब..........
30.8.2023
7.00 रात्रि
संतप्त= सताया हुआ
अगम= दुर्गम, ना चलने वाला
उद्विग्न= चिन्तित, परेशान
घृणि= ज्योतिर्मय
प्रथित= विस्तृत
द्वितीय श्रंखला का १३२ वां एवं आज तक का ११३९ वां वैदिक भजन
वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएँ ❗🌹🙏
Vyakhya
तेरी शरण
जब मनुष्य धूप से व्याकुल हो रहा होता है,शरीर से पसीने की धारें चू रही होती है, ताप से सर फटा जाता है,तब वह किसी तरु की शीतल छाया में पहुंचाना चाहता है। छाया पाकर उसे जो विश्राम मिलता है,उसे वह अपना सब दु:ख भूल जाता है। ऐसी ही अवस्था आज हमारी हो रही है। हम सांसारिक तापों से ऐसे संतप्त क्लांत और उद्विग्न हो रहे हैं की छाया पाये बिना चैन नहीं पड़ रहा है। पर जाए तो किस छाया में जाएं? घने से घने वृक्ष या बड़े से बड़े भवन आदि की छाया इस सांसारिक ताप को नहीं मिटा सकती। अविद्या अस्मिता, राग, द्वेष अधिनिवेश आदि के क्लेशों से संतप्त जन को कोई भौतिक छाया कैसे शान्ति दे सकती है? हे जगतपति !हे ईशों के ईश!तुम्हारी ही छाया हमारे सन्तापों को हर सकती है। अतः हम तुम्हारी शरण में आ रहे हैं। पर तुम तो अग्नि हो !अग्नि से तो ज्वालाएं निकलती हैं। हम संतापों को यदि तुम्हारी ज्वालाओं ने घेर लिया तो क्या और भी अधिक हम आग में नहीं झुलसने लग जाएंगे? नहीं यद्यपि तुम अग्नि हो 'घृणी ' हो जाज्वल्यमान हो तो भी शरणागतों को जलाते नहीं अपितु उनके तापों को ही भस्म करते हो । तुम हिरण्यसंदृष्य हो, सुवर्ण सद्ष्य तेज वाले हो। हिरण्य यद्यपि आग्नेय यह है, पर उसका तेज धारणकर्ता को दग्ध नहीं करता,प्रत्युत मनमोहक और शरीर को शान्ति देने वाला होता है। इसी प्रकार तुम अग्निमय देदीप्यमान एवं हिरण्य संदृष्य की छत्रछाया और शरण संतापों से हमारा उद्धार ही करती है। यदि घृत में हम किसी सीलन भरी एवं मलिन आसुरी छाया में पहुंच गए, तो संताप तो हमारे क्या ही मिटेंगे, उल्टे हमें किन्ही नवीन आधि -व्याधियों से ग्रस्त हो जाने का भय है। हे शरणागतों के त्राता! हम अपनी ओर से तुम्हारी शरण में आ रहे हैं,तुम भी हमें अपनी शरण में ले लो और हमारे सब संतापों को हर कर हमें दिव्य आनन्द प्रदान कर दो।
विषय
उपासना से शान्ति की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = प्रकाशस्वरूप, सब बुराइयों को दग्ध करनेवाले प्रभो! (वयम्) = हम (हिरण्यसंदृशः) = हितरमणीय तेजवाले अथवा हिरण्य [स्वर्ण] की तरह रोचमान तेजवाले (धृणे:) = दीप्त ते आपके (शर्म) = शरण को (उप अगन्म) = समीपता से इस प्रकार प्राप्त हों, (इव) = जैसे कि गर्मी से पीड़ित मनुष्य (छायाम्) = छाया को प्राप्त होते हैं। [२] प्रभु की उपासना हमारे लिये इसी प्रकार शान्ति को देनेवाली हो, जैसे कि गर्मी से पीड़ित पुरुष को वृक्ष की छाया शान्ति को देनेवाली होती है। उपासना का सर्वमहान् लाभ यह व्याकुलता का न होना ही है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की शरण क्लेश सन्तप्त पुरुषों के लिये शान्ति को देनेवाली होती है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वाना! आम्ही सर्व ऋतूत प्रकाशमान असलेल्या सूर्याच्या तुझे घर सावलीप्रमाणे समजावे. ॥ ३८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of bliss and eternal protection, just as a person runs to the shade for relief from the blazing sun, so may we, shining as pure gold, rise and come to your presence, the blissful shade of divinity, our ultimate haven and home.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men attain is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person! you are shining with knowledge like the fire, you being endowed with splendor or glittering like gold, we come to your home for shelter as we come to the shade to escape heat of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person! we come to your home, as from the heat of the sun to the shade, as your home is suitable and pleasant in all seasons.
Foot Notes
(घृणे:) प्रदीप्तात्सूर्य्यात् । घृ-क्षरणदीप्त्योः (जुहोo) = From brilliant sun. (शर्म) गृहम। शर्म इति गृहनाम (NG 3, 4) = Home, shelter.
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