ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वमि॒मा वार्या॑ पु॒रु दिवो॑दासाय सुन्व॒ते। भ॒रद्वा॑जाय दा॒शुषे॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒मा । वार्या॑ । पु॒रु । दिवः॑ऽदासाय । सु॒न्व॒ते । भ॒रत्ऽवा॑जाय । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिमा वार्या पुरु दिवोदासाय सुन्वते। भरद्वाजाय दाशुषे ॥५॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। इमा। वार्या। पुरु। दिवःऽदासाय। सुन्वते। भरत्ऽवाजाय। दाशुषे ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्याः कं सत्कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यतस्त्वं दिवोदासाय सुन्वते भरद्वाजाय दाशुष इमा पुरु वार्य्या ददासि तस्मात् प्रशंसनीयोऽसि ॥५॥
पदार्थः
(त्वम्) (इमा) इमानि (वार्य्या) वार्य्याणि स्वीकर्त्तुमर्हाणि (पुरु) बहूनि (दिवोदासाय) कमनीयस्य पदार्थस्य दात्रे (सुन्वते) सोमौषध्यादिसिद्धिसम्पादकाय (भरद्वाजाय) धृतविज्ञानाय (दाशुषे) विज्ञानस्य दात्रे ॥५॥
भावार्थः
मनुष्यैस्सत्योपदेशका विद्याप्रचारकाश्च सदैव सत्कर्त्तव्या नेतरे ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य किसका सत्कार करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जिस कारण से (त्वम्) आप (दिवोदासाय) कामना करने योग्य पदार्थ के देने और (सुन्वते) सोमलतारूप ओषधि आदि की सिद्धि करनेवाले और (भरद्वाजाय) धारण किया विज्ञान जिसने उसके और (दाशुषे) विज्ञान के देनेवाले के लिये (इमा) इन (पुरु) बहुत (वार्य्या) स्वीकार करने योग्यों को देते हो, इससे प्रशंसा करने योग्य हो ॥५॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सत्य के उपदेशकों और विद्या के प्रचारकों का सदा ही सत्कार करें, अन्य जनों का नहीं ॥५॥
विषय
पात्रप्रद विवेकी प्रभु ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) विद्युद् के समान चमकने हारे स्वामिन् ! ( त्वम् ) तू ( इमा वार्या ) इन नाना उत्तम २ धनों को ( पुरु ) बहुत सी मात्रा में ( सुन्वते ) ऐश्वर्य प्राप्त करने में यत्नवान् ( दिवः दासाय ) सूर्यवत् तेजस्वी, आचार्य के सेवक के समान (भरद्वाजाय) अन्न बल आदि के धारण करने वाले ( दाशुषे ) समर्पक भक्त जन को देता है । इत्येक त्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
वरणीय प्रभु
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (इमा) = इन (वार्या) = वरणीय धनों को (पुरु) = खूब ही प्राप्त कराते हैं । आप इन वरणीय धनों को (दिवोदासाय) = ज्ञान के उपासक के लिये, (सुन्वते) = यज्ञशील पुरुष के लिये प्राप्त कराते हैं । [२] (भरद्वाजाय) = अपने में शक्ति का भरण करनेवाले के लिये आप इन धनों को प्राप्त कराते हैं। (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिये, दानशील के लिये ।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'दिवोदास, सुन्वन्, भरद्वाज व दाश्वान्' बनें जिससे वरणीय धनों को प्राप्त कर सकें।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सत्य उपदेशकांचा व विद्या प्रचारकांचा सदैव सत्कार करावा, इतरांचा नव्हे! ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
You are the source giver of all these many cherished gifts of life for the enlightened, generous, creative yajaka, master of knowledge, wealth and honour dedicated to social service and charity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Whom should men honor is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned person! you give these many acceptable articles to a person who is himself giver of good and desirable thing, who is extractor of the juice of Soma and other nourishing plants and who is upholder of various sciences and their propagator. Therefore, you are worthy of respect.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should respect only those who are preachers of truth and knowledge, and not the others.
Translator's Notes
It is not correct on the part of Sayanacharya to take the word भरत: used in the fourth mantra and दिवोदास and भारद्वाज used in fifth names of particular king and sages saying 'भरतः दोष्यन्तिरेतत्संज्ञको राजा'(म० 4 ) दिवोदासाख्याय राज्ञे दिवोदासाख्याय राज्ञे भरद्वाज ऋषये म० 5) and thus mislead Prof. Wilson, Griffith and 'other translators who have simply said in the footnotes :- Bharata Sayana considers Bharata here to be the Raj, the son of Dushyanta Prof. Wilson Vol. III P. 264 “Bharata; according to Sayaya the king of that name, son of Dushyanta and Sakuntala, (Griffith-The Hymns of Rigveda Vol. I. P. 571). It is against the fundamental Principles of the Vedic Terminology accepted by Sayanacharya himself in his interpretation to the commentary on the Rigveda while strongly supporting the eternity of the Vedas. How can the Vedas be regarded as eternal, if they refer to Bharata a the son of Dushyanta born millions of years after the beginning of creations.
Foot Notes
( दिवोदासाय ) कमनीयस्य पदार्थस्य दात्रे । (दिवोदासाय) दिवु धातोः कान्त्यर्थमादाय व्याख्या। कान्ति कामना। दासु-दाने (भ्वा०) = For the giver of a desirable thing. ( भरद्वाजाय ) धूत विज्ञानाय ( भरद्वाजाय ) (डु) भृञ्-धारणपोषणयोः (जु० ) अत्र धारणार्थं ग्रहणम् | = Upholder of various sciences.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal