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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 28
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निस्ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ यास॒द् विश्वं॒ न्य१॒॑त्रिण॑म्। अ॒ग्निर्नो॑ वनते र॒यिम् ॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । ति॒ग्मेन॑ । शो॒चिषा॑ । यास॑त् । विश्व॑म् । नि । अ॒त्रिण॑म् । अ॒ग्निः । नः॒ । व॒न॒ते॒ । र॒यिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निस्तिग्मेन शोचिषा यासद् विश्वं न्य१त्रिणम्। अग्निर्नो वनते रयिम् ॥२८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। तिग्मेन। शोचिषा। यासत्। विश्वम्। नि। अत्रिणम्। अग्निः। नः। वनते। रयिम् ॥२८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 28
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यथाऽग्निस्तिग्मेन शोचिषा प्राप्तं वस्तु वहति तथा यो विश्वमत्रिणं नि यासत्तथा च योऽग्निर्नो रयिं वनते तमध्यक्षं कुरु ॥२८॥

    पदार्थः

    (अग्निः) पावकः (तिग्मेन) तीव्रेण (शोचिषा) ज्योतिषा (यासत्) प्रयतेत (विश्वम्) समग्रम् (नि) (अत्रिणम्) शत्रुम् (अग्निः) पावक इव (नः) अस्मभ्यम् (वनते) सम्भजति (रयिम्) द्रव्यम् ॥१८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राज्ञाऽधिकारिस्थापने प्रजासम्मतिरपि ग्राह्यैवं सति कदाप्युपद्रवो न जायते ॥२८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जैसे (अग्निः) अग्नि (तिग्मेन) तीव्र (शोचिषा) प्रकाश से प्राप्त हुए वस्तु को जलाता है, वैसे जो (विश्वम्) सम्पूर्ण (अत्रिणम्) शत्रु के प्रति (नियासत्) प्रयत्न करे और वैसे जो (अग्निः) अग्नि के सदृश (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) द्रव्य का (वनते) सेवन करता है, उसको अध्यक्ष करिये ॥२८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा को चाहिये कि अधिकारियों के नियत करने में प्रजा की सम्मति भी ग्रहण करे, ऐसा होने पर कभी भी उपद्रव नहीं होता है ॥२८॥

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    विषय

    प्रजाभक्षकों का नाश, राजा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) सूर्य वा अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष ( तिग्मेन शोचिषां ) अपने तीक्ष्ण तेज से, ( विश्वम् अत्रिणं ) समस्त प्रजाभक्षक दुष्ट जन को ( नि यासत् ) नाश करे । वह ( अग्निः ) तेजस्वी नायक ( रयिम् ) ऐश्वर्य (वनते ) प्राप्त करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शत्रु विनाश व धन प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (अग्निः) = वह अग्रेणी प्रभु (तिग्मेन शोचिषा) = अपनी तीव्र ज्ञानदीप्ति से सब (अत्रिणम्) = हमें खा जानेवाले काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं को (नियासत्) = [निहतु] नष्ट करें। प्रभु ने ही तो काम को भस्म करना है। [२] इन काम आदि शत्रुओं को नष्ट करके अब वे (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (नः) = हमारे लिये (रयिं वनते) = धनों को देते हैं । 'काम-क्रोध-लोभ' यदि हमारे 'स्वास्थ्य, शान्ति व ज्ञानदीप्ति' रूप धन को नष्ट करते हैं, तो इनका विनाश हमें पुन: 'स्वास्थ्य, शान्ति व दीप्ति' रूप धनों को प्राप्त करानेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं का नाश करते हैं और 'स्वास्थ्य, शान्ति है। व दीप्ति' रूप धनों को प्राप्त कराते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजाने अधिकारी नेमताना प्रजेची संमती घ्यावी. असे केल्याने कधी उपद्रव होत नाही. ॥ २८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, with the flaming light of pure refulgence, dries up and burns off all hostility of the world and brings the wealth of life for us, dedicated supplicants and celebrants.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! as fire burns every thing that is lying near, by its sharp blaze, so appoint him as the head of the military (defense), department who casts down all wicked enemies and bestows wealth upon us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A king should take the opinion of the people also when appointing officers, by doing so there will be no occasion for disturbance or discontentment.

    Foot Notes

    (अविणम्) शत्रुम् । अत्रिणो में रक्षांसि । वाप्मानोऽक्षिण: (षड्विशं वै ब्राह्मणे 3, 1 ) । रक्षांसि वै प्राप्मात्रिणा (ऐतरेय ब्राह्मणे 2, 2) = Sinful enemy. (शोचिषा) ज्योतिषा । शोचिरिति ज्वलतोनाम (NG 1, 17 ) = By blaze or luster.

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