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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 35
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    गर्भे॑ मा॒तुः पि॒तुष्पि॒ता वि॑दिद्युता॒नो अ॒क्षरे॑। सीद॑न्नृ॒तस्य॒ योनि॒मा ॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गर्भे॑ । मा॒तुः । पि॒तुः । पि॒ता । वि॒ऽदि॒द्यु॒ता॒नः । अ॒क्षरे॑ । सीद॑न् । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गर्भे मातुः पितुष्पिता विदिद्युतानो अक्षरे। सीदन्नृतस्य योनिमा ॥३५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गर्भे। मातुः। पितुः। पिता। विऽदिद्युतानः। अक्षरे। सीदन्। ऋतस्य। योनिम्। आ ॥३५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 35
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! योऽक्षर ऋतस्य योनिमाऽऽसीदन्मातुः पितुश्च पिता गर्भे विदिद्युतानोऽस्ति तं सर्वस्य विश्वस्य जनकं विजानन्तु ॥३५॥

    पदार्थः

    (गर्भे) आभ्यन्तरे (मातुः) जनन्या इव भूमेः (पितुः) जनक इव सवितुः (पिता) पालकः (विदिद्युतानः) विशेषेण प्रकाशमानः (अक्षरे) अविनाशिनि स्वरूपे कारणे जीवे वा (सीदन्) (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) गृहम् (आ) समन्तात् ॥३५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो जनकानां जनकः प्रकाशकानां प्रकाशकोऽस्ति तं सर्वं उपासीरन् ॥३५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर ईश्वर कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् जनो ! जो (अक्षरे) नहीं नाश होनेवाले अपने रूप, कारण वा जीव में (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) गृह को (आ) सब ओर से (सीदन्) प्राप्त होता हुआ (मातुः) माता का जैसै, वैसे भूमि का और (पितुः) पिता का जैसै सूर्य्य का (पिता) पालक और (गर्भे) गर्भ में (विदिद्युतानः) विशेष करके प्रकाशमान है, उसको सम्पूर्ण संसार का जनक जानो ॥३५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो उत्पन्न करने वालों का उत्पादक, प्रकाशकों का प्रकाशक है, उसकी सब लोग उपासना करें ॥३५॥

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    विषय

    परमेश्वर । माता के गर्भ में बालकवत् राज्य गर्भ में राजा की स्थिति । और सभाभवन के मुख्यासन पर पिता के पिता ( पितामह ) पदकी प्राप्ति ।

    भावार्थ

    ( मातुः योनिम् सीदन् गर्भे स्थितः ) माता के गर्भाशय में पहुंचकर वहां ही स्थित गर्भस्थ बालक जिस प्रकार पुष्टि पाता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू ( मातुः गर्भे ) माता पृथ्वी के 'गर्भ' अर्थात् बीच में या स्वगृहीत राष्ट्र में ( ऋतस्य योनिम् सीदन् ) सत्य-न्याय के घर, सभाभवन में अध्यक्ष पद पर बैठता हुआ (अक्षरे) अविनाशी स्थिर पद पर (दिद्युतानः ) आकाश में सूर्यवत् चमकता हुआ ( पितुः पिता ) पिता का भी पिता होकर विराज । ( २ ) यह अग्नि जीव अक्षय मातृतुल्य ज्ञानवान् जगन्निर्माता परमेश्वर के परम पद में विराजता हुआ मोक्ष सुख भोगे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'गर्भे मातुः, पितुः पिता'

    पदार्थ

    [१] ['द्यौः पिता, पृथिवी माता'] वे प्रभु (मातुः गर्भे) = इस मातृतुल्य पृथिवी के मध्य में है। इस प्रभु की सत्ता के कारण ही इस पृथ्वी में सर्वत्र पुण्य गन्धन्दी उपस्थिति है 'पुण्यो गन्धः पृथिव्याञ्च'। वे (पितुः पिता) = द्युलोक रूप पिता के भी पिता [पालक] हैं। आकाश में 'शब्द रूप से इन्हीं का निवास है' 'शब्दः खे' । अक्षरे विनाशी वेद ज्ञान में विदिद्युतान: विशिष्टरूप से दीप्त हो रहे हैं 'सर्वे वेदाः यत् पदं आमनन्ति' । सब वेद के शब्दों में इस प्रभु का ही प्रतिपादन हो रहा है। [२] ये प्रभु (ऋतस्य योनिं आसीदन्) = ऋत के मूल उत्पत्ति स्थान में स्थित होते हैं । वस्तुतः ऋत को जन्म देनेवाले ये प्रभु ही हैं। 'ऋतञ्च सत्याञ्चाभीद्धात्तपसोध्यजायत'। इस ऋत को अपनाते हुए हम भी अपने हृदयों को प्रभु का अधिष्ठान बना पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- यह पृथिवी माता तथा द्यौः पिता तुल्य हैं। ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो निर्माणकर्त्याचा निर्माणकर्ता, प्रकाशकांचा प्रकाशक आहे त्याचीच सर्व लोकांनी उपासना करावी. ॥ ३५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, life of life and light of the universe, present in the interior of mother earth, sustainer of the sun, father of earth and her children, shining in his own eternal self, in the individual soul and in the world of imperishable Prakrti, the spirit of the universe, pervades and inspires the ruling laws of eternal truth and the world of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is character of God is told again.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons ! know that God to be the Father of the whole world, Who being seated in the immortal soul and in His own imperishable nature and pervading the home of truth (absolutely true) is the Father of the mother earth and father-like sun and is resplendent within all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should all adore that one God who is the Father of the fathers and Illuminator of the luminaries.

    Foot Notes

    (अक्षरे ) अविनाशिनि स्वरूपे कारणे जीवे वा । न क्षरतोति अक्षरम् । क्षर संचलने (भ्वा० ) = In his (God's) own imperishable nature or in the soul.

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