ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
प्र वा॑मश्नोतु सुष्टु॒तिरिन्द्रा॑वरुण॒ यां हु॒वे। यामृ॒धाथे॑ स॒धस्तु॑तिम्॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वा॒म् । अ॒श्नो॒तु॒ । सुऽस्तु॒तिः । इन्द्रा॑वरुणा । याम् । हु॒वे । याम् । ऋ॒धाथे॑ इति॑ । स॒धऽस्तु॑तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे। यामृधाथे सधस्तुतिम्॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वाम्। अश्नोतु। सुऽस्तुतिः। इन्द्रावरुणा। याम्। हुवे। याम्। ऋधाथे इति। सधऽस्तुतिम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 17; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
विषय - इन्द्रावरुण व सधस्तुति
पदार्थ -
१. (इन्द्रावरुण) - हे इन्द्र व वरुणदेवो! (वाम्) - आप दोनों को वह (सुष्टुतिः) - उत्तम स्तुति (अश्नोतु) - प्राप्त करे (याम्) - जिस - जिस स्तुति को (हुवे) - मैं करता हूँ और (याम्? - जिस (सधस्तुतिम्) - दोनों की साथ - साथ स्तुति को आप (ऋधाथे) - बढ़ाते हो ।
२. इन्द्र और वरुण देवों की उत्तम स्तुति यही है कि हम उनके गुणों को अपने अन्दर धारण करें । "इन्द्र' सब शत्रुओं को पराजित करनेवाला है , हम भी काम , क्रोध , लोभादि सब शत्रुओं का संहार करनेवाले बनें । 'वरुण' पाशी है । हम भी पाशी बनें और इन व्रतरूप पाशों से अपने को बाँधनेवाले बनें । 'कामादि का संहार व सत्यादि व्रतों में अपने को बाँधना' - ये दोनों बातें सदा साथ - साथ ही चलती हैं , ये एक - दूसरे की पोषक हैं , अतः इन्द्र और वरुण की सम्मिलित स्तुति ही हमारे वर्धन का कारण है । "इन्द्र' बनने के लिए 'वरुण' बनना आवश्यक है , 'वरुण' बनने के लिए 'इन्द्र' बनना । ' जितेन्द्रियता के लिए व्रती होना आवश्यक है और व्रती होने के लिए जितेन्द्रिय होना । यही इनकी सधस्तुति है । इसी में हमारा वर्धन , उन्नति है ।
भावार्थ -
भावार्थ - हम अपने इस साधना के जीवन में जितेन्द्रिय बनने के लिए व्रती बनें , व्रती बनने के लिए जितेन्द्रिय हों । इस प्रकार हम अपने जीवनों में इन्द्रावरुण की सधस्तुति करनेवाले हों ।
विशेष / सूचना -
विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से होता है कि जितेन्द्रियता और व्रतमय जीवन मुझे दीप्त जीवनवाला बनाएँ [१] । जितेन्द्रिय व व्रती पुरुष वे ही बनते हैं जो न्यूनता के पूरण करने की कामनावाले हों [विप्र] , ज्ञानी हों [मा - वान्] , श्रमशील हों [चर्षणि] , [२] जितेन्द्रिय व व्रती पुरुष आवश्यक धन का भी अर्जन कर पाता है [३] । ये अपने में शक्ति व मति का मिश्रण करते हुए अत्यन्त दानी होते हैं [४] । जितेन्द्रिय पुरुष हजारों का दान करता है तो व्रती अत्यन्त प्रशस्त जीवनवाला होता है [५] । इन दोनों भावनाओं से मनुष्य धन प्राप्त करते हैं , जोड़ते हैं और देते हैं [६] । इन जितेन्द्रियता व व्रतमयता से मुनष्य ज्ञान , धन व विजय प्राप्त करते हैं [७] । इन भावनाओं के होने पर मनुष्य में संविभाग - वाली बुद्धि होती है , यही मनुष्य का कल्याण करती है [८] , अतः हम अपने जीवनों में इन्द्र और वरुण की साथ - साथ स्तुति करें [९] । ऐसा होने पर प्रभु हमें सौम्य , गतिशील , दृढविश्वासी व मेधावी बनाएँगे - इन शब्दों के साथ अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -