ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 14
ये अ॑ग्निद॒ग्धा ये अन॑ग्निदग्धा॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते । तेभि॑: स्व॒राळसु॑नीतिमे॒तां य॑थाव॒शं त॒न्वं॑ कल्पयस्व ॥
स्वर सहित पद पाठये । अ॒ग्नि॒ऽद॒ग्धाः । ये । अन॑ग्निऽदग्धाः । मध्ये॑ । दि॒वः । स्व॒धया॑ । मा॒दय॑न्ते । तेभिः॑ । स्व॒ऽराट् । असु॑ऽनीतिम् । ए॒ताम् । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व॑म् । क॒ल्प॒य॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभि: स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥
स्वर रहित पद पाठये । अग्निऽदग्धाः । ये । अनग्निऽदग्धाः । मध्ये । दिवः । स्वधया । मादयन्ते । तेभिः । स्वऽराट् । असुऽनीतिम् । एताम् । यथाऽवशम् । तन्वम् । कल्पयस्व ॥ १०.१५.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
विषय - 'असुनीति' का अध्ययन
पदार्थ -
[१] (ये) = जो पितर (अग्निदग्धा) = अग्निदग्ध हैं, अर्थात् अग्निविद्या में परिपक्व ज्ञान वाले व निपुण हैं, जिन्होंने अग्नि आदि देवों का ज्ञान प्राप्त किया है। (ये) = अथवा जो (अनग्निदग्धाः) = अग्निविद्या में निपुण नहीं भी हैं, अर्थात् जिन्होंने इन अग्नि आदि देवों का ज्ञान प्राप्त नहीं किया । आत्मचिन्तन में व समाज-स्वभाव के अध्ययन में लगे रहकर जो विज्ञान की शिक्षा को बहुत महत्त्व नहीं दे पाये। ये सब पितर जो कि (दिवः मध्ये) = ज्ञान के प्रकाश में (स्वधया) = [ स्व + धा] आत्मतत्त्व के धारण से (मादयन्ते) = अत्यन्त हर्ष का अनुभव करते हैं। (तेभिः) = उन पितरों से (स्वराट्) = आत्मशासन करनेवाला तू (एतां असुनीतिम्) = इस प्राण विद्या को (कल्पयस्व) = सिद्ध कर । प्राणविद्या को सिद्ध करके (यथावशम्) = इच्छा के अनुसार अर्थात् जैसा चाहिए वैसा (तन्वम्) = शरीर को कल्पयस्व - शक्तिशाली बना । [२] पितरों को यहाँ दो भागों में बाँटा है- [क] एक तो वे हैं जिन्होंने प्रकृतिविद्या का खूब अध्ययन किया है। उन्हें ही यहाँ 'अग्निदग्ध' कहा गया है, [ख] दूसरे वे हैं जिन्होंने समाजशास्त्र व अध्यात्मशास्त्र [sociology व metaphysics] पर प्रयत्न किया है। वे यहाँ 'अनग्निदग्ध' कहलाये हैं। ये सब के सब ज्ञान के प्रकाश में विचरण करते हैं, ज्ञान में ही उन्हें आनन्द का अनुभव होता है। [३] इन पितरों से प्राणविद्या को, जीवन की नीति को सीखने का हमें प्रयत्न करना चाहिए। इस असुनीति को सीख कर हम स्वराट् = आत्मशासन करनेवाले बनेंगे तो अपने शरीरों को उचित प्रकार से शक्तिशाली बना सकेंगे।
भावार्थ - भावार्थ- हम ज्ञानी पितरों से प्राणविद्या को सीखें, और अपने शरीरों को सुन्दर व शक्तिशाली बनायें । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि पितर 'प्राणविद्या को प्राप्त, हृत को जाननेवाले व निर्लोभ ' हैं, [१] इन पितरों के लिये हमें नमस्कार करना चाहिए, [२] हमें ये 'ज्ञान के द्वारा रक्षण करनेवाले, यज्ञशील' पितर प्राप्त हों, [३] ये पितर हमें 'शान्ति निर्भयता व निर्दोषता' प्राप्त कराते हैं, [४] वे पितर हमारे आमन्त्रण को स्वीकार करते हुए अवश्य घरों पर आयें, [५] हमें यज्ञों का उपदेश दें, [६] अपने सत्परामर्श से ये हमारे में 'वसु व अर्क' का स्थापन करें, [७] पितरों के साथ आनन्द को अनुभव करते हुए हम आवश्यकतानुसार ही भोजन को करनेवाले बनें, [८] ये पितर लोकहित के लिये प्रबल कामना वाले होते हैं, [९] ये प्रभु के उपासक व यज्ञशील होते हैं, [१०] अग्नि आदि देवों का इन्होंने खूब ज्ञान प्राप्त किया है, [११] इनके सम्पर्क में हम भी 'उपासना, स्वाध्याय व अग्निहोत्र' को अपनानेवाले बनते हैं, [१२] जो भी पितर हमारे घरों पर आयें, हम उनका सत्कार करें, [१३] उनसे प्राणविद्या को सीखकर अपने शरीरों को सुन्दर बनायें, [१४] आचार्य उचित तप व दण्ड के द्वारा हमें ज्ञान परिपक्व करें-
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